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________________ में समाज के विघटन को देखकर आप अत्यन्त सन्तप्त देखे जाते थे । उस समय मैंने अल्पावधि में ही आपके सद्विचारों का सन्निकट से अनुभव किया । आपके जीवन के विषय में जितना भी कुछ लिखा जाय किंचित् मात्र ही रहेगा। अतः मैं श्रद्धेय प्रवर्तक जी महाराज साहब के गुणानुवाद करने में असमर्थ होते हुए आपकी लेखनी को विराम देता हूँ । साध्वी श्री विमलवतीजी भारतवर्ष महापुरुषों का देश है । यह अवतारों की जन्मभूमि और सन्तों की पुण्य भूमि है। मीरों की कर्मभूमि और विचारकों की प्रचार भूमि रही है । यहाँ पर अनेक नव रत्न, देश रत्न और समाज-रत्न पैदा हुए हैं। जिन्होंने मानव मन की शुष्क भूमि पर स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की जन-जन के मन-मन में अभिनव जागृति का संचार किया और संयम की उज्ज्वल, निर्मल ज्योति जगाई । संयम क्या है ? इन्द्रियों पर रोक लगाना ही संयम है । जो मध्य मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण करता है वही श्रेष्ठ और ज्येष्ठ साधक है। समस्त संसार इन्द्रियों का दास बना हुआ है। आत्मा के अनन्त पराक्रम को इन्द्रियों की दासता छीन लेती है। अनन्त पराक्रम को अक्षुण्ण रखने के लिए इन्द्रिय-निग्रह ( संयमनिष्ठा) करना अनिवार्य हैं । महापुरुषों का इन्द्रिय निग्रह अपूर्व ही होता है । वे अपने जीवन को संयमित बनाते हुए दूसरों के जीवन को भी संयमित बनाते हैं । इन्द्रिय-विजेता ही आत्म-साधना कर सकता है। आत्म-साधना के द्वारा सद्गुणों का विकास करना ही उनका परम ध्येय होता है । इन्द्रिय-निग्रह और मनोनिग्रह पर भगवान महावीर ने बड़े ही सुन्दर ढंग से फरमाया है "जहा कुम्मे स अंगाई सए देहे समाहरे, एवं नवाई मेहावी अज्झेप्पेण समाहरे ।" विकास की ओर बढ़ने की भावना रखने वाले मानव के लिए संयमीवृत्ति का विकास करना अनिवार्य है । ऐन्द्रिक, शारीरिक और मानसिक शक्तियों का sahaka श्रद्धान एवं वन्दना | ५३ सुकार्यों और परोपकार में व्यय करना ही संयम है । यह ही सुख का राजमार्ग है । इसी मुख के राजमार्ग पर चलने वाले मेवाड़-भूषण, पण्डितरत्न, त्यागी, तपोधनी, तत्त्वज्ञ श्री अम्बालाल जी महाराज साहब का हम हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । आप श्री उदार विचार के धनी और उच्च कोटि के कर्मठ साधक हैं। माधुर्यपूरित भाषा नम्रवृत्तिमय जीवन और समन्वय सिद्धान्त के माध्यम से संगठन और स्नेह की सरिता प्रवाहित करने में आप अत्यन्त दक्ष हैं । आपने इस दीर्घ दीक्षावधि में लाखों श्रोताओं को अपनी माधुर्य पूर्ण वाणी द्वारा अभिभूत एवं अभिसिंचित किया है । ऐसी परम पवित्र विभुति के पाद-पद्मों में भक्ति भरी पुष्पाञ्जलि के साथ शासन देव से यह प्रार्थना करती हूँ कि आप श्री को दीर्घायु बनावें । राजेन्द्र मुनि शास्त्री, काव्यतीर्थ [उदीयमान लेखक ] परमादरणीय प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है । मुझे उनके सम्बन्ध में लिखने के लिए कहा गया है। मैं सोचता हूँ, क्या लिखूं ? महापुरुषों के सम्बन्ध में लिखना टेढ़ी खीर है । पं० मुनि श्री अम्बालाल जी महाराज के गृहस्थाश्रम में मैंने दर्शन भी किये होंगे पर मुझे स्मरण नहीं । श्रमण बनने के पश्चात् सर्वप्रथम मैंने उनके दर्शन साण्डेराव सम्मेलन में किये। मैंने उनके सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेव राजस्थान केसरी पुष्कर मुनि जी महाराज व समर्थ साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज से बहुत कुछ सुन रखा था । जैसा सुना था वैसा ही मैंने उनको पाया । स्वभाव से सरल, मिलनसार और विचारों से उदार । उनके जीवन में हजार-हजार विशेषताएँ हैं पर सबसे बड़ी विशेषता जो मैंने उनमें पाई वह उनकी दृढ़ संकल्प शक्ति स्थानकवासी परम्परा मुख्य रूप से आषाढ़ी पूर्णिमा से उनपचास या पचासवें दिन संवत्सरी महापर्व मनाती रही है। गतवर्ष सन् १९७४ में दो भाद्रपद होने से यह प्रश्न सामने आया। समाज में बहुमत ४९-५० वें के पक्ष में । फलतः एक तूफान पैदा हो गया । श्रमण संघ के आचार्य सम्राट् आनन्द ऋषिजी महाराज एवं श्रमण संघ --- For Policy rate con The * Minim 000000000000 000000 000000000000 ww sanchord ५/
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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