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________________ 0 श्री शान्ति मुनि [मधुर व्याख्याता तथा आगम अभ्यासी संत] मेवाड़ प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज ०००००००००००० ०००००००००००० वैराग्य .....2 विक्रम सं० १९८२ की बात है। मेवाड़ महाराणा के तत्कालीन हाकिम साहिब श्री रणजीतसिंह जी खिवेसरा का दौरा मालवी जंक्शन की कचहरी में हुआ। तब उन्होंने एक जाने-पहचाने विश्वसनीय व्यक्ति को जेल के सींखचों में बन्द देखा और उनका हृदय तिलमिला उठा । समीप पहुँचकर तत्काल ही पूछ लिया कि क्यों हमीर! इस स्थान पर तुम कैसे? मैं तो आज तक तुम्हें एक सभ्य एवं सुशील नागरिक समझता आ रहा था, क्या मेरा विश्वास असत्य सिद्ध हो गया है ? अच्छा तो बताओ, तुमने किस सुशीलता को कलंकित किया है, जिसके फलस्वरूप इस कारागृह के महमान बन बैठे हो? हमीर ने कहा- "साहब ! यद्यपि आप मुझे जानते हैं, तथापि मेरी जानकारी दुहरा देता हूँ । थामला मेरा जन्मस्थान है, औसवंशीय श्री किशोरीलाल जी सोनी का मैं किशोर हूँ, धर्मनिष्ठा श्री प्यार देवी माता का मैं लाल हूँ, और, आपकी देखरेख में काम करने वाला राज्य कर्मचारी मैं अमीन हूँ। मुझे मेरे पूर्व पुण्योदय से मेवाड़ भूषण सद्रत्न मुनि श्री (पूज्य श्री) मोतीलाल जी महाराज एवं श्री भारमल जी महाराज के दर्शन का लाभ मिला है और साथ ही उन्हीं के ज्ञानामृतोपदेश से सांसारिक व्यवहारों के प्रति उपरति-सी आ गई है । मैंने मेरे सम्बन्धियों के सामने अपने ये सद्विचार रखे और उनसे दीक्षा की अनुमति चाही । सम्बन्धियों ने इस शुभ भावना से डिगाने के लिए अनेक प्रलोभन दिखाये । जब मैं अपने विचारों से विचलित नहीं हुआ तो मेरे लधु भैया श्री रंगलाल जी सोनी (आजकल चन्देसरा में रहते हैं) एवं दादीजी साहब ने शासन के समक्ष पुकार करके दीक्षा से वंचित करने के लिए यहाँ पर बन्द करवा दिया है। अब आप ही सोच सकते हैं कि मैं यहाँ बन्दी क्यों हैं !" हाकिम साहब ने कहा- "हमीर ! चिन्ता न करो, अपने पावन विचारों पर दृढ़ रहो, श्रेय कामों में विघ्न आते ही हैं । महात्मा गाँधी का उदाहरण सामने है; किन्तु याद रहे, उदयपुर पहुँचते ही तुम्हें आजाद न करवा दूं तो मुझे रणजीत न कहना।" तीन दिन के बाद ही उदयपुर के राजमहल में एक कौंसिल बैठी थी। तत्कालीन महाराजकुमार श्री भोपाल सिंह जी (महाराणा भोपाल) उस कौंसिल के अध्यक्ष थे-सामने ही हमीरमल को बुलवाया गया । दीक्षा से विचलित करने के लिए अनेक अनुकूल-प्रतिकूल प्रश्नोत्तर होने के बाद राजकीय अनुज्ञा प्रदान कर दी गई कि हमीर, तुम स्वतन्त्र हो, अपने जीवन का निर्माण करने में इच्छित पथ अपना सकते हो ! ___ तदनुसार श्री हमीरमल जी की दीक्षाविधि महामहिम पावन गुरुदेव के करकमलों से 'मंगलवाड़' में समारोह पूर्वक सम्पन्न हुई और अब श्री हमीरमल जी ही श्री अम्बालाल जी महाराज के नामकरण से जैन समाज में प्रसिद्ध हुए । श्रद्धा के साथ दृढ़ वैराग्यात्मा को शतशः वन्दन ! शास्त्र-ज्ञाता वैराग्य-धारा को बलवती एवं अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए शास्त्रज्ञान की पूर्ण आवश्यकता रहती है । इसी लक्ष्य से आप श्री ने श्रद्धेय गुरुदेव से सविनय शास्त्रों का पठन गहराई से करके पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली। HPाल
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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