SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 587
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज--अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० किया करते हैं । यदाकदा मुनि भी आ जाया करते हैं तो, वहाँ गृहस्थों की आज्ञा लेकर ठहर जाया करते हैं और उस स्थान को वापस उन्हें ही सौंप कर विहार कर देते हैं । स्थानकवासी शब्द केवल स्थानक से धर्म ध्यानार्थ सम्बन्धित होने तक ही अर्थ रखता है। निवास या अधिकार तक उसका कोई अर्थ लगाए तो यह अनर्थ है। स्थानकवासी शब्द भौतिक से अधिक आध्यात्मिक अर्थ रखना है। वस्तुतः आत्मा ही यथार्थ में वास्तविक स्थान है जहाँ चेतना को टिकना चाहिये । आत्मा में स्थित होने की प्रक्रिया ही स्थानकवासी शब्द का अन्तर्मम है। और यह सत्य भी है कि जड़वाद को जिसने त्याग दिया, उसके लिए केवल "आत्मा" ही चिन्तन केन्द्र रह जाता है। मुमुक्षुओं के लिए केवल आत्मा ही वह स्थान है जहाँ टिककर वे अपना आध्यात्मिक उत्कर्ष साध पाए । उपर्युक्त समग्र विवेचना को निम्नांकित पद्य में ठीक-ठीक अभिव्यक्ति दी गई है। सत्य अहिंसा अनेकान्त पथ, जीव दया विश्वासी। आत्म स्थान में स्थित सर्वदा, जिनमत स्थानकवासी ।। IHILI JINIK ..... SIRE 4-0-- -- ---- - 4-0-0-0--0--0 जोइंति पक्कं न उ पक्कलेणं, ठावेंति तं सूरहगस्स पासे । एक्कमि खंभम्मि न मत्तहत्थो, वज्झंति वग्घा न य पंजरे दो। -बृहत्कल्पभाष्य ४४१० पक्व (झगड़ालू) को पक्व (झगड़ालू) के साथ नियुक्त नहीं करना चाहिए, किन्तु शान्त के साथ रखना चाहिए, जैसे कि एक खम्भे से दो मस्त हाथियों । को नहीं बांधा जाता है और न एक पिंजड़े में दो सिंह रखे जाते है। RON PHOBAR Jain Education in
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy