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________________ ५३२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० लोकागच्छ का इतिहास धर्म क्रान्ति का इतिहास है । इसने लगभग सौ वर्ष तक यथार्थ वीर मार्ग को प्रसारित किया । कालान्तर में, यह तीन भागों में विभाजित हो गया-(१) गुजराती लोंकागच्छ, (२) नागोरी लोंकागच्छ, (३) उत्तरार्ध लोंकागच्छ । सामान्यतया चैत्यवासियों यतियों का प्राबल्य था ही, लोंकागच्छ यद्यपि क्रांति लेकर आया था किंतु दुर्भाग्यवश ही कहिए इस पर चैत्यवास की सुविधावादी छाया पड़ने लगी । लोंकागच्छ ने मूर्ति और मंदिर को तो स्वीकार नहीं किया किंतु साध्वाचार में वह श्रेष्ठता नहीं रही, जो लोंकाशाह ने स्थापित की। धर्म क्रांति का स्वर फिर मंद हो गया। जैन जनता पुन: आडम्बरों के बीहड़ में भटकने लगी । चारों ओर अज्ञानता का तमस् फैला था तभी जैन जगत में क्रियोद्धार की एक नयी लहर पैदा हुई । स्थानकवासी (साधुमार्गी) परम्परा का अभ्युदय श्रीमद् लोकाशाह का दिव्य संदेश उन्हीं के अनुयायियों के द्वारा लगभग भुला दिया गया था, तभी अर्थात् सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दि में कुछ ऐसे महापुरुष आगे आये, जिनके क्रांतिकारी उद्घोष से चिर निद्रा में प्रसुप्त जैन जगत पुत्र जाग्रत हो, सक्रिय हो उठा। उन महापुरुषों में पूज्य श्री जीवराज जी महाराज पूज्य श्री धर्मसिंह जी महाराज, पूज्य श्री लवजी ऋषि पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज, पूज्य श्री हरजी ऋषि जी महाराज के नाम प्रमुख हैं। श्री जीवराज जी महाराज श्री जीवराज जी महाराज का जन्म सूरत में श्रावण शुक्ला १४ संवत् १५८१ में हुआ। श्री वीरजीभाई पिता तथा श्री केसरबाई माता का नाम था। इन्होंने १६०१ में जगजी यति के पास दीक्षा ली । ज्ञानादि की आराधना के बाद सत्यार्थ का बोध होने पर संवत् १६०८ में इन्होंने सर्वप्रथम क्रियोद्धार का बिगुल बजाया। पाँच मुनियों के साथ शुद्ध दीक्षा स्वीकार की और प्रचलित मुनिवेश को रखकर शेष अनावश्यक उपकरणों का परित्याग किया। श्री जीवराज जी महाराज का आगरा में समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। इनकी उपस्थिति में ही इनके अनेक शिष्य बने । इनकी शिष्य परम्परा से कई संप्रदायों का उद्गम हुआ । आज आठ-दश संप्रदायें आपको अपना मूल-पुरुष मानती हैं श्री धर्मसिंह जी महाराज क्रियोद्धारक पूज्य श्री धर्मसिंह जी महाराज का जन्म जामनगर दशा श्रीमाली परिवार में हुआ जिनदास और शिवादेवी माता-पिता थे । १५ वर्ष की वय में लोंकागच्छी देवजी ऋषि के पास संयम लिया । ये बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि थे, थोड़े ही समय में गम्भीर तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लिया । शास्त्र-ज्ञान से इनके अन्तर्चक्षु खुल गये । उन्हें प्रचलित शिथिलाचार से बड़ी घृणा हुई । उन्होंने शुद्ध वीतराग मार्ग के अनुसार शुद्ध साधुत्व लेने का दृढ़ निश्चय किया। उन्होंने अपने विचार गुरु के समक्ष रखे । उन्होंने कहा-यह तलवार की धार पर चलाने के समान है, तुम यदि दरगाह (अहमदाबाद) एक रात्रि रह लो तो, मैं तुम्हें क्रियोद्वार की आज्ञा दे दूगा। दृढ़ निश्चयी श्री धर्मसिंह जी दरिया पीर की चमत्कारिक दरगाह में रात्रि भर ठहरे। उस दरगाह में रात्रि ठहरना उस समय बड़ा खतरनाक था। उसमें रात्रि ठहरने वाला प्राय: जीवित नहीं रहता था। श्री धर्मसिंह जी महाराज रात्रि में तत्व-ज्ञान का चिन्तन करते रहे । दरिया पीर उससे बड़ा प्रभावित हुआ । उसने रात्रिभर मुनि श्री की वाणी का लाभ लिया। दूसरे दिन जीवित बाहर आने पर चारों तरफ आश्चर्य छा गया। उनके तथाकथित गुरु भी समझ गये कि धर्मसिंह अद्भुत तेजस्वी मुनि है, इससे निश्चित ही वीर धर्म की सेवा होगी। मुनि श्री धर्मसिंहजी क्रियोद्धार का बिगुल बजाकर हजारों भटके प्राणियों को सद्बोध प्रदान किया। इनकी संप्रदाय का नाम दरियापुरी संप्रदाय प्रसिद्ध हुआ । उपर्युक्त घटना १६६२ की है । सौराष्ट्र गुजरात में अधिकतर इन्हीं महात्मा का उपकार है । १७२८ के आसोज वदी ४ को इनका स्वर्गवास हुआ। M WWW 640 Jain Education International For Private PersonalisesOnly Presents
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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