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________________ ५०६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 ... ... MAAS नहीं है, दोनों सापेक्ष हैं । मुर्गी और अण्डे के विषय में भी प्रभु ने पूर्वापरता का निषेध करते हुए अनादि परम्परा सिद्ध की । प्रभु ने कहा-ये शाश्वत है, इनमें पहले पीछे का क्रम कभी भी नहीं बना। एक प्रसंग में प्रभु ने गौतम के प्रश्नों का समाधान करते हुए कहाआकाश पर वायु है वायु पर पानी पानी पर पृथ्वी पृथ्वी पर त्रस-स्थावर अजीव, जीव पर आधारित जीव कर्म वेष्ठित है अजीव पुद्गल जीव ग्रहित है जीव कर्म द्वारा संग्रहित है। प्रभु एक बार 'कयंगला' पधारे, वहाँ छत्रपलास उद्यान में 'स्कन्धक' नामक परिव्राजक अपनी कतिपय शंकाएँ लेकर उपस्थित हुआ। प्रभु ने उनके सभी प्रश्नों का सम्यक् समाधान किया। प्रभु की तत्त्वज्ञता, सर्वज्ञता से प्रभावित हो, स्कन्धक प्रभु के पास प्रवजित हुआ। स्कन्धक भगवान के शासन में अच्छे तपस्वी मुनिराज सिद्ध हुए। भगवान ने चम्पा में प्रवास करते हुए, पद्म, महापद्म आदि श्रेणिक के दश पौत्र और अनेक व्यक्तियों को श्रमण प्रवज्या प्रदान की। काकन्दी में गाथापति खेमक और धृतिधर को मुनिपद प्रदान किया। एक बार प्रभु चम्पा नगरी में पुनः पधारे, तब महाराज चेटक और कौणिक का युद्ध चल रहा था। राजा श्रेणिक की काली आदि दस महारानियाँ प्रभु के पास उपस्थित हो अपने पुत्रों के विषय में, जो युद्ध रत थे, कुछ प्रश्न पूछे-प्रभु ने कहा- वे युद्ध में मारे गये । इस पर दसों रानियाँ वैराग्यवती होकर प्रभु के शासन में दीक्षित हो गई। इन रानियों ने कनकावली रत्नावली आदि अद्भुत तप किये। जिन शासन में इन महारानियों का तप बड़ा प्रसिद्ध है। हल्ल, बिहल्ल जिनके हार-हाथी को लेकर वैशाली में विशाल युद्ध लड़ा गया, समय पाकर दोनों श्रावस्ती में प्रभु के निकट पहुँचकर संयमी हो गये। एक भयंकर दुर्घटना प्रभु उस समय श्रावस्ती में ही थे, गोशालक भी वहीं था। वह जिन या तीर्थकर नहीं था, फिर भी अपने आपको तीर्थकर प्रदर्शित कर रहा था। वह आजीवक मत की प्ररूपणा में रत था। श्री इन्द्रभूति गौतम ने प्रभु से गोशालक के जिनत्व के विषय में पूछा । प्रभु ने कहा-वह जिन नहीं है। यह संवाद गोशालक के पास पहुंचा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। क्रोधान्ध हो, वह भगवान महावीर के निकट पहुंच गया और उनसे अपने रूपान्तरित होने की मिथ्याचर्चा करने लगा, ज्योंही प्रभु ने उसके कथन को मिथ्या कहा, अंगार की तरह क्रोध में जाज्वल्यमान होकर प्रभु को अपशब्द कहने लगा। वहाँ सर्वानुभूति नामक मुनि उपस्थित थे, उनसे प्रभु का अपमान सहा न गया। उन्होंने गोशालक को हितबोध देने हेतु केवल इतना ही कहा था कि प्रभु का ही शिष्य होकर तुम्हें अपने गुरु का इस तरह अनादर नहीं करना चाहिए। इस पर गोशालक और अधिक क्रोध में उबल पड़ा । उसने तम-तमा कर तपोसाधना द्वारा प्राप्त "तेजोलेश्या" (आग्नेय दृष्टि) का तीव्र प्रयोग किया । सर्वानुभूति मुनि तत्क्षण जलकर भस्म हो गये । K......... Sain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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