SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृति के प्रमुख पर्वो का विवेचन | ४८१ मांग स्वीकार होने पर उन्होंने पहली सुमेरू और दूसरी मानुषोत्तर पर्वत पर रखी तीसरी उस के लिए उन्होंने बलि के कहने से उसकी पीठ पर पैर रखा तो उसका शरीर थर-थर काँपने लगा, आखिर मुनियों के कहने से उसे मुक्त किया गया । उस दिन श्रवण नक्षत्र व श्रावण सुद १५ का दिन था, इसी दिन विष्णुकुमार मुनि द्वारा ७०० मुनियों की रक्षा की गई थी, इससे यह दिन पवित्र माना जाता है। इस दिन की स्मृति बनाए रखने के लिए परस्पर सबने प्रेम से बड़े मारी उत्सव के साथ हाथ में सूत का डोरा चिन्ह स्वरूप बांधा, तभी से यह श्रावण सुद १५ का दिन रक्षाबन्धन के नाम से जाना जाता है । मुनियों को उपसर्ग से मुक्त हुआ जानकर ही श्रावकों ने भी भोजन करने की इच्छा की और उन्होंने घर-घर खीर तथा नानाविध प्रकार की मिठाइयाँ बनाई, परम्परागत रूप से डोरा बाँधने और मिठाइयाँ बनाने की प्रथाएँ चली आ रही हैं।२६ विशेष - प्रस्तुत कथा का साम्य कई पुस्तकों में देखने को मिला किन्तु जैन मान्यतानुसार यह पर्व कब से प्रारम्भ हुआ, इसका कोई प्रमाण मेरे देखने में नहीं आया, उचित प्रमाण के अभाव में समयोल्लेख नहीं किया है । पंचकल्याणक जैन संस्कृति के पर्वों में पंचकल्याणक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। तीर्थंकरों की आत्मा देवलोक से च्यवकर माता के गर्भ में प्रवेश करती है, जन्म लेती है, तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करते हैं, कैवल्य प्राप्त होता है तथा मोक्ष में पधारते हैं तब मान्यता है कि देवता हर्षोल्लास से अष्टान्हिका महोत्सव का आयोजन करते हैं, उन तिथियों के स्मृति स्वरूप आज भी पंचकल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं । विशेष कर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के ये महोत्सव मूर्तिपूजक समाज अत्यन्त हर्ष और उल्लास के साथ सम्पन्न करता है । इन तिथियों पर त्याग-तपस्या का भी अपूर्व क्रम चलता है । पंचकल्याणक की तिथियों का वर्णन पुरुष परिष, महावीर परियं आवश्यक नियुक्ति तीर्थकरों के इन पंचकल्याणक की तिथियाँ प्राप्त लिखे जा सकते हैं, इनका संक्षिप्त रूप अगले पृष्ठ आयम्बिल ओली पर्व किसी एक ही ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता । कल्पसूत्र, त्रिषष्ठिशलाका महापुराण आवश्यक भूमि और कल्प सुबोधिका टीका में कहीं-कहीं होती हैं। देखा जाए तो इन तिथियों पर कई पन्ने शोध की दृष्टि से पर है " उज्जयिनी नगर में प्रजापाल राजा राज्य करते थे, उनके सौभाग्य सुन्दरी और रूप सुन्दरी दो रानियाँ थीं । जिनके क्रमशः सुर-सुन्दरी और मैना सुन्दरी नाम की पुत्रियाँ थीं । ज्ञानाभ्यास की समाप्ति के बाद एक बार दोनों राजकुमारियाँ अपने कलाचार्यों के साथ राज्य सभा में उपस्थित हुईं राजा ने दोनों राजकुमारियों से प्रश्न पूछे । सुरसुन्दरी और मैंनासुन्दरी ने उनके यथोचित उत्तर दिये । राजा ने प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने का कहा, तब मैना सुन्दरी ने कर्म की प्रमुखता बतलाते हुए राजा की कृपा को गौण कर दिया। राजा मैनासुन्दरी पर अत्यन्त कुपित हुआ । श्रीपाल की अल्पायु अवस्था में उसके पिता चम्पा नरेश सिंहरथ की मृत्यु हो गई थी। प्राण बचाने के लिए रानी कमल प्रभा श्रीपाल को लेकर वन में रवाना हो गई, वहाँ प्राण रक्षा के निमित्त उनको सात सौ कोढ़ियों के एक दल में सम्मिलित होना पड़ा। संयोग से कोढ़ियों का यह दल उन्हीं दिनों उज्जयिनी में आया हुआ था। राजा ने कोढ़ियों के राजा श्रीपाल (उम्बर राजा) से मैना सुन्दरी का विवाह कर दिया। hawalihat विवाह के अनन्तर दोनों को एक जैन मुनि के दर्शन पाने का उपाय पूछा, गुरुदेव ने कहा- मयणा ! हम साधु हैं, और तन्त्र बताना हमारे लिए निषिद्ध है, हमारी मान्यता है चारित्र और तप इन नौ पदों से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं हैं। आराधना अवश्य होती है। शान्त दान्त जितेन्द्रिय और निरारंभ होकर जो इनको आराधना करता है वह सौख्य प्राप्त करता है ।" प्राप्त हुए, मैनासुन्दरी ने गुरुदेव से कुष्ठ रोग से मुक्ति निर्ग्रन्थ मार्ग की उपासना हमारा कर्त्तव्य है, यंत्र, मंत्र कि अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान सिद्ध पद को पाने वालों की सिद्धि में इन नव पदों की शुक्ला सप्तमी से नव दिन तक आयम्बिल तप करके नवपद का ध्यान करे, इसी तरह चैत्र में भी 20NM pu 000000000000 000000000000 SCOOTERODE pho
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy