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________________ 000000000000 रेश 000000000000 4000 10004 @ :3830 80 Jain Education International ४७८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ धारा नगरी के कुमार कालक और कुमारी सरस्वती ने गुणाकर मुनि के पास संयम स्वीकार किया। वीर नि० सं० ४५३ में कालक को आचार्य पद प्रदान किया गया। वीर नि० सं० ४७० से ४७२ के बीच इनका चातुर्मास मडौं था । वहाँ से विशेष परिस्थितिवश चातुर्मास अवधि में ही आचार्य कालक ने प्रतिष्ठानपुर की ओर विहार कर दिया तथा वहाँ के श्रमण संघ को सन्देश पहुँचाया कि वे पर्युषण के पूर्व प्रतिष्ठानपुर पहुंच रहे हैं, अतः पर्युषण सम्बन्धी कार्य उनके वहाँ पहुँचने के पश्चात् निश्चित किया जाय । वहाँ पहुँच कर आचार्य ने पंचमी को संवत्सरी (सामूहिक पर्युषण) मनाने की सूचना दी, परन्तु वहाँ के जैन धर्मावलम्बी राजा सातवाहन को इन्द्र महोत्सव में भाग लेना था, इस लिए उसने छठ या चौथ को पर्युषण मनाने का निवेदन किया। कालकाचार्य ने चौथ को संवत्सरी मनाने की बात स्वीकार करली। इस प्रकार कालकाचार्य ने देशकाल को देखते हुए भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को पर्वाराधना किया । १२ दशाश्रत स्कन्ध चूर्णि तथा जिन विजय जी द्वारा सम्पादित जैन साहित्य के अनुसार कालकाचार्य का समय वीर निर्वाण स० ६६३ माना जाता है, काल गणना के अनुसार इस समय को सही मानने की मान्यता कम है । इस सम्बन्ध में आचार्य श्री हस्तीमल जी म० सा० द्वारा दिया गया समय वीर निर्वाण संवत ४७२ सही माना जाता है । कई प्रमाणों से आचार्य श्री ने जैनधर्म के मौलिक इतिहास में इसका विशद विवेचन किया हैं । चतुर्थी की इस परम्परा को स्थायी महत्त्व प्राप्त नहीं हो सका। वर्तमान में यदि कभी चतुर्थी को संवत्सरी पर्व की आराधना की जाती है तो इसका कारण यह नहीं कि कालकाचार्य की परम्परा का पालन हो रहा है, वस्तु स्थिति यह है कि वास्तव में संवत्सरी पंचमी को ही मनाई जाती है, कभी -कभी कालगणना के कारण ही पर्वाराधना चतुर्थी को की जाती है । दिगम्बर जैन अपना पर्युषण पर्व महोत्सव भाद्रपद शुक्ला से पूर्णिमा तक मनाते हैं वे इस पर्व को पर्युषण न कहकर दशलक्षण पर्व कहते हैं। संभव है मत विभिन्नता के कारण पृथक समय अपनी पृथकता और विशेषता तथा विभिन्नता को बनाए रखते हुए उन्होंने पर्युषण के बजाय दस लक्षण पर्व प्रारम्भ किया हो। दस लक्षण पर्व की क्रिया आदि की सारी भावना पर्युषण से मिलती-जुलती है। दस लक्षण धर्म का उल्लेख आचार्य उमास्वाती कृत तत्त्वार्थं सूत्र के नौवे अध्याय में इस प्रकार है । उत्तम क्षमामार्दवार्जव शोच सत्य संयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः । क्षमा, नम्रता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य और (निष्परिग्रहता ) ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं । जैन समाज के सभी घटक निर्विवाद रूप से तत्त्वार्थ सूत्र की मान्यता को स्वीकार करते हैं। यह पर्व आत्मावलोकन समालोचना का भी पर्व है। कृत कर्मों का लेखा-जोखा कर पापों को वोसराया जाता है। पर्युषण के शाब्दिक विवेचन से स्पष्ट होता अर्थ इस प्रकार है । "परिसमन्तात् उच्यन्ते ते कर्माणि यस्मिन् पर्युपणम् ।" पर्यषण का दूसरा अर्थ आत्मा में निवास करना होता है और आध्यात्मिक अर्थ में आत्मा में निवास करना सार्थक है । पर्युषण का नामोल्लेख निशीथ सूत्र में इस प्रकार पाया जाता है । " साधु प्रमादवश पर्युषण आराधना न करे तो दोष लगता है । १२ केश लोच पर्युषण पर करना अत्यन्त आवश्यक है, गौ के रोम जितने बाल भी न रखे 13 साधु पर्युषण में किंचित भी आहार न करे। १४ कल्पसूत्र में पर्युषण के लिए एक विशेष कल्प है जिनमें विस्तार से विवेचना की गई है "संवत्सरी के दिन केशलोच नहीं करने वाले साधु को संघ में रहने योग्य नहीं माना है।"१५ पर्युषण क्षमा का अनुपम पर्व है, महावीर के शासन काल में उदायन द्वारा अपराधी चण्डप्रद्योतन को क्षमा कर गले मिलने का उदाहरण कितना सुन्दर लगता है, उसी परम्परा का पालन आज भी जैन जैनेतर समाज द्वारा किया जाता रहा है । निशीथ सूत्र के कथाकार ने यह लिखते हुए एक कथा का समापन किया है कि 'जब अज्ञान और असंयत ग्रामीणों ने भी क्षमायाचना की और कुंभार ने क्षमा प्रदान की तो संयमी साधुओं का तो कहना ही क्या है ? जो भी अपराध किया हो उस सब को पर्युषणा के समय क्षमा लेना चाहिये। इससे संयम की आराधना होती है।' १६ उक्त सभी प्रमाणों से ज्ञात होता है कि पर्युषण महापर्व जैन संस्कृति का अत्यन्त प्राचीन पर्व है । cook.com य For Private & Personal Use Only www.jainellfbrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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