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________________ राजस्थान के प्राकृत श्वेताम्बर साहित्यकार | ४५६ जिनप्रभसूरि जिनप्रभसूरि ये विलक्षण प्रतिमा के धनी आचार्य थे। इन्होंने १३२६ में जैन दीक्षा ग्रहण की और आचार्य जिनसिंह ने इन्हें योग्य समझकर १३४१ में आचार्य पद प्रदान किया । दिल्ली का सुलतान मुहम्मद तुगलक बादशाह इनकी विद्वत्ता और इनके चमत्कारपूर्ण कृत्यों से अत्यधिक प्रभावित था। इनके जीवन की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ प्रसिद्ध हैं । 'कातन्त्रविम्रमवृत्ति, श्रेणिकचरित्र द्वयाश्रयकाव्य', 'विधिमार्गप्रपा' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। विधिप्रपाप्राकृत साहित्य का एक सुन्दर ग्रन्थ है श्रीयुत् अगरचन्द जी नाहटा का अभिमत है, कि ७०० स्तोत्र भी इन्होंने बनाये। वे स्तोत्र संस्कृत, प्राकृत देश्य भाषा के अतिरिक्त भाषा में भी लिखे हैं। वर्तमान में इनके ५५ स्तोत्र उपलब्ध होते हैं । २० नेमिचन्द्रसूरि ०००००००००००० ०००००००००००० CERT TA नेमिचन्द्रसूरि ये बृहद्गच्छीय उद्योतन सूरि के प्रशिष्य थे और आम्रदेव के शिष्य थे । आचार्य पद प्राप्त करन के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था । 'महावीर चरियं' इनकी पद्यमयी रचना है। वि. सं. ११४१ में इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । इनके अतिरिक्त 'अक्खाणयमणिकोस' (मूल) उत्तराध्ययन की संस्कृत टीका, आत्मबोधकुलकप्रभृति इनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं। गुणपालमुनि गुणपालमुनि श्वेताम्बर परम्परा के नाइलगच्छीय वीरभद्रसूरि के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे। 'जम्बुचरियं' इनकी श्रेष्ठ रचना है ।२५ ग्रन्थ की रचना कब की इसका संकेत ग्रन्थकार ने नहीं किया है, किन्तु ग्रन्थ के सम्पादक मुनि श्री जिनविजयजी का अभिमत है कि ग्रन्थ ग्यारहवीं शताब्दी में या उससे पूर्व लिखा गया है । जैसलमेर के भण्डार से जो प्रति उपलब्ध हुई है वह प्रति १४वीं शताब्दी के आसपास की लिखी हुई है। जम्बूचरियं की भाषा सरल और सुबोध है । सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्य-पद्य मिश्रित है। इस पर 'कुवलयमाला' ग्रन्थ का सीधा प्रभाव है । यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरि ने सिद्धान्तों का अध्ययन वीरमद्र नाम के आचार्य के पास किया था। उन्होंने वीरभद्र के लिये लिखा 'दिनजहिच्छियफलओ अवरो कप्परूक्खोब्व' गुणपाल ने अपने गुरु प्रद्य म्नसूरि को वीरभद्र का शिष्य बतलाया है। गुणपाल ने भी 'परिचिंतिय दिन्नफलो आसी सो कप्परूक्खो' ऐसा लिखा है, जो उद्योतन सूरि के वाक्य प्रयोग के साथ मेल खाता है। इससे यह स्पष्ट है कि उद्योतन सूरि के सिद्धान्त गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपालमुनि के प्रगुरु वीरभद्रसूरि ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा ही है, तो गुणपालमुनि का अस्तित्त्व विक्रम की हवीं शताब्दी के आसपास है। ___ गुणपाल मुनि की दूसरी रचना 'रिसिकन्ताचरिय' है। जिसकी अपूर्ण प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना में है। समयसुन्दरगणि ये एक वरिष्ठ मेधावी सन्त थे। तर्क, व्याकरण साहित्य के ये गम्भीर विद्वान् थे। उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखकर बड़े-बड़े विद्वानों की अंगुली भी दाँतों तले लग जाती थी। संवत् १६४६ की एक घटना है-बादशाह अकबर ने कश्मीर पर विजय वैजयन्ती फहराने के लिये प्रस्थान किया। प्रस्थान के पूर्व विशिष्ट विद्वानों की एक सभा हुई । समय सुन्दर जी ने उस समय विद्वानों के समक्ष एक अद्भुत ग्रन्थ उपस्थित किया। उस ग्रन्थ के सामने आज दिन तक कोई मी ग्रन्थ ठहर नहीं सका है। 'राजानो ददते सौख्या' इस संस्कृत वाक्य के आठ अक्षर हैं, और एक-एक अक्षर के एकएक लाख अर्थ किये गये हैं। बादशाह अकबर और अन्य सभी विद्वान् प्रतिमा के इस अनूठे चमत्कार को देखकर नतमस्तक हो गये । अकबर कश्मीर विजय कर जब लौटा, तो अनेक आचार्यों एवं साधुओं का उसने सम्मान किया। उनमें एक समयसुन्दरजी भी थे। उन्हें वाचक पद प्रदान किया गया । इन्होंने वि. सं. १६८६ ई. सन् १६२६ में 'गाथा सहस्री' HDac WिS H INDIA PALA
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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