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________________ - --0-0-- -- ०००००००००००० ------------ -----------0--0-0-0-0-0-0--2 0 अभयकुमार जैन, एम० ए०, बी० एड० जैन साहित्य के व्यास-कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्य हेम साहित्यरत्न (बीना, म०प्र०) I चन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की एक विरल झांकी यहाँ है प्रस्तुत है। h-or-o-o-or-o-o------------o-o-o-o-o प्राचार्य हेमचंद्र : जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व ०००००००००००० Acx SA USTANCE भारतीय वाङ्मय के विकास में जिन आचार्यों ने महान् योगदान दिया है उनमें 'कलिकाल सर्वज्ञ' की उपाधि से विभूषित आचार्य हेमचन्द्र का स्थान अन्यतम है। वे 'ज्ञान के सागर' थे। उनका व्यक्तित्व व्यापक, विशाल, प्रेरक व गौरवपूर्ण था। कलिकाल सर्वज्ञ की उपाधि ही उनके व्यक्तित्व की विशालता एवं व्यापकता की द्योतक है। वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा किसी विषय विशेष तक ही सीमित नहीं थी; अपितु उन्होंने विभिन्न विषयों पर महान् ग्रन्थों का प्रणयन कर वाङ्मय के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी लेखिनी से विभूषित और समृद्ध किया। वे एक मूर्तिमान ज्ञानकोष थे। इनमें एक साथ ही वैयाकरण, आलङ्कारिक, दार्शनिक, साहित्यकार, इतिहासकार पुराणकार, कोषकार, छन्दोनुशासक, धर्मोपदेशक और महान् युगकवि का अन्यतम समन्वय हुआ है। केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं, अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में भी आचार्य श्री ने अपूर्व योगदान दिया है। वे सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय तथा सर्वोपदेशाय इस भूतल पर अवतरित हुए थे। निःसन्देह भारत के मनीषियों और ऋषियों की परम्परा में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है। आचार्य श्री का जन्म गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर से लगभग ६६ किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'धुंधुकानगर' या 'धंधुक्य' में वि०सं० ११४५ की कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि की मंगलबेला में हुआ था। प्राचीनकाल में यह एक समृद्धि सम्पन्न और सुविख्यात नगर था । संस्कृत के इतर ग्रन्थों में इस नगर के नाम 'धुन्धुकपुर' अथवा 'धुंधुक्क' नगर भी मिलते हैं ।२ इनके पिता का नाम 'चच्च' अथवा 'चाचिग' तथा माता का नाम 'चाहिणी' अथवा 'पाहिणी' था। ये मोढ़वंशीय वैश्य थे। चूंकि इनके पूर्वजों का निष्क्रमण ग्राम 'मोढ़ेरा' से हुआ था इसी से ये मोढ़वंशीय कहे जाते थे। कहा जाता है कि इनके पिता शैवधर्मावलम्बी थे तथा माता जैनधर्मावलम्बी थीं। धार्मिक सहिष्णुता और प्रेम का यह एक अच्छा उदाहरण था। पाहिणी का भाई (चङ्गदेव का मामा) नेमिनाग था जो पूर्णत: जैनधर्मावलम्बी था और जिसने अन्त में जैनीदीक्षा भी ग्रहण की थी। प्रारम्भिक अवस्था में बालक का नाम 'चङ्गदेव' रखा गया था। बालक का यह नामकरण इनकी कुलदेवी 'चामुण्डा' और कुलयक्ष 'गोनस' के आद्यक्षरों के मेल से उनकी स्मृति स्वरूप किया गया था। सोमप्रभसूरि के वर्णन के अनुसार जिस समय चङ्गदेव अपनी माता के गर्भ में थे उस समय उनकी माता ने अद्भुत स्वप्न देखे थे। 'प्रभावक चरित' में भी माता द्वारा अद्भुत स्वप्न देखे जाने का वर्णन है तथा राजशेखर ने भी 'प्रबन्ध कोश' में माता के इस स्वप्न के विषय में लिखा है। जन्मोपरान्त बालक चङ्गदेव का क्रमिक विकास शीघ्र सम्पन्न हुआ। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की लोकोक्ति के अनुसार बालक चङ्गदेव अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही अत्यधिक होनहार व निपुण था। माता-पिता और धर्मगुरुओं के सम्पर्क से बालक में सद्गुणों का विकास होना प्रारम्भ हुआ। जब ये केवल आठ वर्ष के ही थे तभी (वि०सं० ११५४ में) इन्होंने अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य देवचन्द्र से साधुदीक्षा ग्रहण कर ली थी। ये ही इनके दीक्षागुरु, शिक्षागुरु और विद्यागुरु थे । आ० हेमचन्द्र ने भी अपने इन गुरु के नाम का स्पष्ट उल्लेख अपने 'त्रिषष्ठिशला का पुरुष चरित' में किया है।' दीक्षोपरान्त चङ्गदेव का नाम 'सोमचन्द्र' रखा गया था। - लाल-Hira
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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