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________________ जैन परम्परा में उपाध्याय पद | ४२१ ०००००००००००० ०००००००००००० CHAR इसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने की सब जिम्मेदारी उपाध्याय के हाथों में है। आज की भाषा में उपाध्याय एक भाषा वैज्ञानिक की दृष्टि से आगम पाठों की शुद्धता तथा उनके परम्परागत रहस्यों के वेत्ता के प्रतीक है। लेखनक्रम अस्तित्त्व में आने से पहले, जैन, बौद्ध एवं वैदिक परम्पराओं में अपने आगम कंठस्थ रखने की परम्परा थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तन, समय का उस पर प्रभाव न पड़े, उनके पाठक्रम और उच्चारण आदि में अन्तर न आए इसके लिए बड़ी सतर्कता बरती जाती थी। शुद्ध पाठ यदि उच्चारण में अशुद्ध कर दिया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। एक अक्षर का, एक अनुस्वार भी यदि आगे-पीछे हो जाए तो उसमें समस्त अर्थ का विपर्यय हो जाता है । कहा जाता है-सम्राट अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को जो तक्षशिला में था, एक पत्र में सन्देश भेजा-"अधीयतां कुमारः" पुत्र ! पढ़ते रहो । किन्तु कुमार कुणाल की विमाता तिष्यरक्षिता ने उसे अपनी आँखों के काजल से 'अधीयतां' के ऊपर अनुस्वार लगाकर 'अंधीयतां' कर दिया। जिसका अर्थ हुआ अंधा कर दो। एक अनुस्वार के फर्क से कितना भयंकर अनर्थ हो गया। शब्दों को आगे-पीछे करके पढ़ने से भी अनर्थ हो जाते हैं। एक मारवाड़ी भाई पाठ कर रहा था-"स्वाम सुधर्मा रे, जनम-मरण से वकरा काट।" इसमें "सेवक" 'रा' शब्द है जिसका उच्चारण करते हुए "से बकरा" करके अनर्थ कर डाला। अनुयोगद्वार सूत्र में उच्चारण के १४ दोष बताते हुए उनसे आगम पाठ की रक्षा करने की सूचना दी गई है । २७ जिस में हीनाक्षर, व्यत्यानेडित आदि की चर्चा है । इन दोषों से आगम पाठ को बचाए रखकर उसे शुद्ध, स्थिर और मूल रूप में बनाये रखने का कार्य उपाध्याय का है। इस दृष्टि से उपाध्याय संघ रूप नन्दन-वन के ज्ञान रूप वृक्षों की शुद्धता, निर्दोषता और विकास की ओर सदा सचेष्ट रहने वाला एक कुशल माली है। उद्यान पालक है। उक्त विवेचन से हम यह जान पायेंगे कि जैन परम्परा में उपाध्याय का कितना गौरवपूर्ण स्थान है और उनकी कितनी आवश्यकता है । ज्ञान दीप को संघ में प्रज्वलित रखकर श्रुत परम्पराओं को आगे से आगे बढ़ाते रखने का सम्पूर्ण कार्य उपाध्याय करते हैं । यह सम्भव है कि वर्तमान में आगम कथित सम्पूर्ण गुणों से युक्त उपाध्याय का मिलना कठिन है, किन्तु जो भी विद्वान-विवेकी श्रमण स्वयं श्रत ज्ञान प्राप्त कर अन्य श्रमणों को ज्ञान-दान करते हैं, वे भी उपाध्याय पद की उस गरिमा के कुछ न कुछ हकदार तो हैं ही। वे उस सम्पूर्ण स्वरूप को प्राप्त करने के इच्छुक भी हैं । अतः ऐसे ज्ञानदीप उपाध्याय के चरणों में भक्तिपूर्वक वन्दन करता हुआ-'आचार्य अमितगति' के इस श्लोक के साथ लेख को सम्पूर्ण करता हूँ। येषां, तपः श्रीरनघा शरीरे, विवेचका चेतसि तत्त्वबुद्धिः । सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपर्दो, पुनन्तु ते ऽध्यापक पुंगवा वः ॥२८ -जिनकी निर्मल तपः श्री शरीर पर दीप्त हो रही है। जिनकी विवेचनाशील तत्त्व बुद्धि चित्त में सदा स्फुरित रहती है। जिनके मुखकमल पर सरस्वती विराजमान है, वे उपाध्याय पुंगव (अध्यापक) मेरे मन-वचन को पवित्र करें। TAITANY SH ONLIMIK ..... १ सूत्र कृतांग ६ २ भगवती ३ सूत्र कृतांग - ४ पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पगासंता। आयारं दंसंता आयरिया तेण वच्चंति ।-आवश्यक नियुक्ति ६६४ । ५ भगवती सूत्र १.१.१. मंगलाचरण में आ० नि०६६७ की गाथा । ६ आव. नि० हरि वृ. पृ. ४४६ । ७ अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग २, पृ० ८८३ EMA - Jimedicaturammermanoran 'S.BE /
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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