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________________ 000000000000 - 000000000000 ४१४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमेकैक कबल हान्यातावनी दरतां करोति यावदेकं कवलमाहारयति । बारहें वर्ष में भोजन करते हुए प्रतिदिन एक-एक कवल कम करते जाना चाहिए । यों कम करते-करते, जब एक कवल आहार पर आजाए तब उसमें से एक-एक दाना (कण ) कम करना शुरू करे। एक-एक कण ( सिक्थ ) प्रतिदिन कम करते-करते अन्तिम चरण में एक ही सिक्थ-दाना भोजन पर टिक जाए। इस स्थिति में पहुंचने के पश्चात् फिर पादपोगम अथवा इंगिनी मरण आदि अनशन ग्रहण कर समाधि मरण प्राप्त करे । Jan Curlano Tinatanone. यह उत्कृष्ट संलेखना विधि है । मध्यम संलेखना बारह मास की और जघन्य संलेखना बारह पक्ष ( छह मास ) की होती है - "जघन्या च द्वादशभिः पक्षे परिभावनीया । " संलेखना में प्रायः तप की विधि ही बताई गई है, किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि सिर्फ तप करना ही संलेखना है । तप के साथ कषायों की मंदता और विषयों की निवृत्ति तो मुख्य चीज है ही । उसके अभाव में तो तप ही असार है । फिर भी भावना-विशुद्धि, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि का उपक्रम भी चालू रखना होता है। बृह में बताया है— साधक रात्रि के पश्चिम प्रहर में धर्म जागरण करता हुआ उत्तम प्रशस्त भावनाओं के प्रवाह में बहताबहता यह सोचता है अणुपालिओ उ दीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा । forcफाइया य सीसा मज्झं कि संपयं जुत्तं ॥ ३७३ ॥ - मैंने दीर्घकाल तक निर्दोष संयम की परिपालना की है। शिष्यों को वाचना आदि द्वारा शास्त्र ज्ञान भी दिया है । अनेक व्यक्तियों को संयम में प्रेरणा और प्रवर्तन भी किया है। इस प्रकार मैं अपने जीवन में कृतकृत्य हो गया हूँ, अब मुझे अपने लिए क्या करना उपयुक्त है ? यह सोचकर वह अपने जीवन को संलेखना की ओर मोड़े - "संलेहण पुरस्सर मेंअ पाराण वा तय पुब्वि" इस संलेखना में अनेक प्रकार के विचित्र तपः कर्म के साथ प्रशस्त भावनाओं का अनुचिन्तन करे, अप्रशस्त भावनाओं को छोड़े और अन्तिम आराधना करे "कालं अणवकखमाणो ।” -मृत्यु की इच्छा न करता हुआ आत्म शुद्धि के प्रयत्न में संलग्न रहे । उक्त वर्णन से संलेखना के स्वरूप पर विशुद्ध प्रकाश पड़ता है। संलेखना धीरे-धीरे शान्त भाव से मृत्यु की ओर प्रस्थान है । शरीर और मन को धीरे-धीरे कसा जाता है, और विषय निवृत्ति का अभ्यास बढ़ा दिया जाता है । हठात् किसी 'दुष्कर काम को हाथ लगाना और फिर बीच में विचलित हो जाना बहुत खतरनाक हैं । अतः साधक के लिए यह मनोवैज्ञानिक भूमिका है कि वह क्रमशः तप और ध्यान के पथ पर बढ़े, मनोनिग्रह का अभ्यास बढ़ाये और मन को इतना तैयार करले कि अन्तिम स्थिति में पहुँचते-पहुँचते वह परमहंस दशा - जिसे शास्त्रों की भाषा में 'पादोपगमन अनशन' कहते हैं कि स्थिति को स्वतः प्राप्त कर ले । जीवन और मृत्यु से सर्वथा असंलीन होकर शुद्ध चैतन्य दशा में रमण करने लगे। उसका शरीर भी स्वतः ही इस प्रकार की निश्चेष्टता ग्रहण कर ले कि न हाथ हिलाने का संकल्प हो, न शरीर खुजलाने का । यह परम शान्त और आह्लादमय स्थिति है, जिसमें साधक को आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं दीखता है । वह प्राण धारण किये रहता है । किन्तु फिर भी निश्चेष्ट और निर्विकल्प और अन्त में उस स्थिति में देह त्याग कर वह अपनी मंजिल तक पहुँच जाता है । S तो संलेखना हमें मृत्यु को जीतने की यह कला सिखाती है। वास्तव में जीवन-शुद्धि और मरण शुद्धि की वह प्रक्रिया है जिसे सामान्य मनोबल वाला साधक भी धीरे धीरे करता हुआ विशिष्ट मनोबल प्राप्त कर सकता है । संलेखना द्वारा जीवन विशुद्धि करने वाले की मृत्यु, मृत्यु नहीं-समाधि है, परम शान्ति है और सम्पूर्ण व्रत-तप ज्ञान आदि का यही तो फल है कि साधक अन्तिम समय में आत्मदर्शन करता हुआ समाधिपूर्वक प्राण त्यागे । तप्तस्य तपश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ॥ पर जैन आगमों में जो विस्तृत विचार किया गया है। -- मृत्यु महोत्सव २३ उसकी यहाँ एक झलक समाधि मरण की कला प्रस्तुत निबन्ध में है । इस पर चिन्तन कर हम मृत्यु की श्रेष्ठ और उत्तम कला सीख सकते हैं और मृत्युंजय बन सकते हैं । 嵨
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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