SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संलेखना : एक श्रेष्ठ मृत्युकला | ४११ ०००००००००००० ०००००००००००० कहीं भी मरण की इच्छा होष्ट परिलक्षित होती हैं। वह आत्मकल वारता और साहसपूर्ण चि होकर शरीर द्वारा कर्म निर्जरा की एक विशुद्ध भावना है । समाधि मरण के लिये वही प्रस्तुत हो सकता है, जिसके मन में आहार आदि भौतिक सुखों के प्रति सर्वथा अनासक्ति पैदा हो गई हो और जो शरीर को कर्म निर्जरा के युद्ध में लगाकर अधिक से अधिक आत्म विशुद्धि करने के लिए कृतसंकल्प हो । अनशन (संथारा) या संलेखना कब करना, किस स्थिति में करना, इस सम्बन्ध में भगवान महावीर ने बारबार चिन्तन स्पष्ट किया है । कहा गया है२० "जिस भिक्षु के मन में यह संकल्प जगे कि अब मैं अपने इस शरीर से अपनी नित्य क्रियाएँ करने में अक्षम हो रहा हूँ, शरीर काफी क्षीण हो चुका है, शक्ति क्षय हो गई है, उठने-बैठने और चलने में मुझे क्लेश का अनुभव हो रहा है । और शरीर धर्म-साधना में जुटे रहने से जबाव देने लगा है। अब इस शरीर को धारण किये रखने का कोई विशेष लाभ नहीं दीखता है और बहुत जल्दी ही इस शरीर से प्राण अलग होने की दशा आ रही है।" तब उसे स्वयं ही शरीर और मन पर नियन्त्रण कर आहार का संवरण (संक्षेप या त्याग) करने की ओर अग्रसर हो जाना चाहिए। मात्र आहार का ही नहीं, कषायों को भी क्षीण करते जाना चाहिए । शान्ति, क्षमा, सहिष्णुता और एकाग्रता का विशेष अभ्यास शुरू कर देना चाहिए । उसे फलगावयट्ठी, फलक-काष्ट पट्ट की भाँति स्थिर चेता सहिष्णु और ध्यान योगारूड़ हो जाना चाहिए।" यदि हम इस शास्त्र वचन के प्रकाश में चिन्तन करें तो स्पष्ट ही समझने में आयेगा कि इस शब्दावली में कहीं भी मरण की इच्छा नहीं झलक रही है और न जीवन के प्रति निराशा का ही कोई स्वर सुनाई देता है। किन्तु स्पष्टतः साधक की आत्म दृष्टि परिलक्षित होती हैं। वह आत्म-कल्याण के लिए समुद्यत होने का संकल्प लेकर ही अनशन की ओर प्रवृत्त होता है, तो इस प्रकार के महान संकल्प को, वीरता और साहसपूर्ण चिन्तन को हम कायरता के प्रतीक आत्म-हत्या जैसे लांछित शब्दों के साथ कैसे बोल सकते हैं ? आत्म-हत्या हीन मनोवृत्ति है, कायरता है, क्लिष्ट और आवेशपूर्ण दशा है, जबकि अनशन (संलेखना) जीवन शुद्धि का उच्च संकल्प है। इसमें चित्त प्रशान्त, उद्वेग रहित, अध्यवसाय निर्मल और मन वीरता से परिपूर्ण रहता है। संलेखना का स्वरूप संलेखना मन की इसी उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना-मृत्यु का आकस्मिक वरण या मौत का आह्वान नहीं है, किन्तु वह जीवन के अन्तिम पथ पर सावधानीपूर्वक निर्भय होकर चलना है। मृत्यु को सामने खड़ा देखकर साधक उसकी ओर बढ़ता है। पर धीमे कदम से, शान्ति के साथ और उसे मित्र की भाँति पुकारता हुआ। हे काल मित्र ! तुम आना चाहते हो तो आओ। इस शरीर को उठाना चाहते हो तो उठा लो, मुझे न तुम्हारा भय है और न शरीर का मोह है। मैं जिस कार्य के लिये इस मनुष्य भव में आया था, उसको पूर्ण करने में सतत संलग्न रहा हूँ। मैंने अपना कर्तव्य पूर्ण किया है, मैं कृतकाम हूँ, इसलिए मुझे न मृत्यु का भय है और न जीवन का लोभ है। लहिओ सुग्गइ मग्गो नाहं मच्चुस्स बीहेमी। अगले जन्म के लिए भी मैंने सुगति का मार्ग पकड़ लिया है । इसलिए अब मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है, मैं काल से नहीं डरता। संलेखना का वर्णन आगमों में अनेक प्रकरणों में आता है। गृहस्थ साधक श्रावक भी जीवन की कृत-कृत्यता का चिन्तन कर अन्तिम समय में संलेखना करता है और साधु भी करता है। चाहे श्रावक हो या श्रमण, संलेखना प्रत्येक आत्मार्थी के जीवन का अन्तिम व आवश्यक कृत्य है। यह जीवन मन्दिर का कलश है। यदि संलेखना के बिना साधक प्राण-त्याग कर देता है तो उसके लिए एक कमी जैसी मानी जाती है। - प्रश्न होता है कि जीवन मन्दिर के कलश रूप संलेखना का अर्थ क्या है तथा इसे संलेखना क्यों कहा गया है ? आगमों के पाठ तथा उन पर आचार्य कृत विवेचन के प्रकाश में देखे तो संलेखना की निम्न परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं संलिख्यतेऽनया शरीर कषायादि इति संलेखना।२५ --जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल व कृश किया जाता है, वह 'संलेखना' है। ......." UNTANT IAS *A DA PANCH LA
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy