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________________ संलेखना : एक श्रेष्ठ मृत्युकला | ४०५ मृत्यु - विज्ञान मनुष्य ने जीवन को जितनी गहराई से समझने का प्रयत्न किया है, मृत्यु को उतनी गहराई से कभी समझने की चेष्टा नहीं की । मृत्यु के विषय में वह अज्ञान रहा है। मृत्यु क्या है, क्यों आती है आदि प्रश्न ही उसे भयानक लगते हैं । मृत्यु के सम्बन्ध में वह सदा भयभीत रहा है। 'मृत्यु' शब्द ही उसे बहुत अप्रिय लगता है। इसका कारण क्या है ? हम जानते हैं कि सूर्योदय के बाद मध्यान्ह होगा और फिर संध्या होकर अंधेरा हो जायेगा, सूर्य डूब जायेगा, काली रात्रि आयेगी । यह रोज का अनुभव होते हुए भी यदि हम सूर्यास्त या रात्रि शब्द सुनकर डरें, संध्या के विषय में सोचने से कतरायें या सूर्यास्त शब्द सुनने पर बुरा कहें तो क्या यह हमारी मूर्खता नहीं होगी ? सूर्योदय अगर जम्म है तो क्या सूर्यास्त मृत्यु नहीं है ? दिन यदि जीवन है तो क्या रात्रि मृत्यु नहीं है ? फिर दिन-रात और प्रातः सायं की तरह जीवन-मृत्यु को एक-दूसरे का पर्याय क्यों नहीं समझते हैं ? और यदि समझते हैं तो उससे डरते क्यों हैं ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है । जानते-बुझते भी मनुष्य मृत्यु से डरता है और कहता रहता है - "मरण समं नत्थि भयं” मृत्यु के समान दूसरा कोई भय नहीं है । "मयः सीमा मृत्यु" सबसे बड़ा और अन्तिम भय है, मृत्यु ! एक बार बादशाह ने लुकमान हकीम से कहा- "मैं मोटा होता जा रहा हूँ। दुबला होने की कोई दवा दो ।" लुकमान ने कहा- “खाना कम खाइये, घी-दूध, मिठाई छोड़ दीजिए।" बादशाह ने कहा, "यही सब करना होता तो आपसे दवा क्यों पूछता ? ऐसी दवा बताइये कि खाना-पीना भी न छोड़ना पड़े और मुटापा भी कम हो जाए ।" दो-चार दिन बाद लुकमान हकीम ने एक दिन बादशाह से कहा"आप चालीस दिन के भीतर ही मर जायेंगे ।" मरने का नाम सुनते ही बादशाह को ऐसी दहशत बैठी कि बस, खानेपीने में कोई मजा नहीं रहा। मरने के भय से ही सूखने लग गया । चालीस दिन में बादशाह की तोंद छट गई, मुटापा काफी कम हो गया । तब लुकमान ने कहा - "बस, अब नहीं मरेंगे ।" बादशाह ने ऐसा कहने का कारण पूछा तो लुकमान हकीम ने बताया- “दुबला होने की दवा है, भय ! भय मनुष्य को कमजोर और जर्जर कर देता है ।" भयों में सबसे बड़ा भय है, मृत्यु । भगवान महावीर ने प्राणियों की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए कहा है- ' असायं अपरिनिव्वाणं महम्भयं ।"" प्राणवध रूप असाता कष्ट ही सब प्राणियों को महाभय रूप लगता है । साधारणतः मनुष्य किसी दुःख से घबरा कर, व्याकुल होकर, निराश और हताश होकर कह उठता है - " इस जीने से तो मरना अच्छा है ।" किसी ने कहा है- “गुजर की जब न हो सूरत गुजर जाना ही अच्छा है ।" कभी-कभी जीवन से इतनी निराशा हो जाती है कि भगवान के सामने मौत भी माँगने लगते हैं । "हे भगवान मुझे मौत दे । प्रभो ! अब मुझे उठा ले, अब मैं जीना नहीं चाहता । मेरी पर्ची चूहे खा गये क्या ?" लगते हैं । किन्तु कब तक ? जब तक मौत सामने नहीं आये । मौत आने पर तो करते हैं । ― Bal Kachraand di इस प्रकार की बहकी हुई-सी बातें करने गिड़गिड़ा कर बचने की ही कोशिश रोज सिर पीटकर कहती थी, "हे परमेश्वर ! ! इस सन्दर्भ में एक दृष्टान्त याद आता है। एक दुखियारी बुढ़िया सब दुनिया को मौत दे रहा है, पर मेरी पर्ची कहीं भूल गया ! मुझे उठा ले मेरी मौत आ जाए तो अच्छा है ।" एक दिन रात को घर में साँप निकल आया । बुढ़िया ने जैसे ही साँप देखा तो "साँप - साँप" कहकर चिल्लाई और बाहर दौड़ी। अड़ोसी पड़ोसी को बुलाया । सब लोग आये । साँप देखकर एक व्यक्ति ने कहा- “दादी ! तू रोज पुकारती थीपरमेश्वर मौत दे दो, आज भगवान ने मौत भेज दी तो तू डर रही है ?" - दुःख री दाघी टोकरी कहे परमेश्वर मार । सपिज कालो निकल्पो, म्हाठी घर सूं बार ॥ तो क्रोध, भय, गरीबी, बीमारी आदि स्थितियों से घबराकर भले ही कोई मरना चाहे या मरने की इच्छा करे, पर वास्तव में जब मौत विकराल रूप लेकर सामने आती है तब व्यक्ति उससे बचने की चेष्टा करता है और उस दीन हरिण की भांति बेतहाशा दौड़ता है, जिसके पीछे कोई शिकारी पड़ा हो । सोचना यह है कि मृत्यु से इतना भय क्यों ? मृत्यु क्या है, इस विषय पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जो शरीर इन्द्रियाँ आदि प्राप्त हुए हैं उनका सर्वथा क्षीण हो जाने का नाम ही मृत्यु है। जैन सिद्धान्त में दस 000000000000 MODDDDDDDD June
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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