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________________ विश्वधर्मों के परिप्रेक्ष्य में जैन उपासक का साधना पथ : एक तुलनात्मक विवेचन | ४०१ ०००००००००००० ०००००००००००० PALI JARILE EARNAKE ..... ....... TWINE तरह इस (दिशा विरति या दिग्वत नामक गुणवत) में भी सीमाकरण या परिमितीकरण का आधार वैसा ही स्व-स्वक्षमता आधृत है। ___ इस गुणव्रत का अभिप्राय यह है कि मानव की विस्तारोन्मुख आकांक्षाएँ एक सीमा, व्यवस्था या नियन्त्रण में आएँ। यों यह साधक के संयमात्मक गुण को बढ़ाता है, इसलिए इसका गुणवत नाम अन्वर्थक है। अनर्थ दण्ड-विरति-दण्ड का अर्थ हिंसा या दूषित आचरण है । कई ऐसे प्रसंग होते हैं कि गृही को अनिवार्य तया हिंसा करनी होती है। यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर वहाँ उस गृही का लक्ष्य हिंसा करना नहीं है, अपना आवश्यक कार्य करना है, जिसके बिना वह नहीं रह सकता। इसलिए इस प्रकार की हिंसा सार्थक कही जाती है । सार्थक से यह न समझ लें कि वह उपयोगी या निर्दोष है । केवल इतना ही समझना होगा कि वाध्यतावश उसे करना होता है, जिसके लिए गृही को किसी अपेक्षा से (गृहस्थ के अनिवार्य कर्तव्य के नाते) क्षम्य माना जा सकता है। फिर कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो किसी भी अनिवार्य प्रयोजन के बिना हिंसा आदि पाप कार्य करते रहते हैं । ऐसे कार्य अनर्थ-दण्ड के अन्तर्गत आते हैं। जैन शास्त्रों में इसे चार प्रकार का बताया है-(१) अपध्यान-बुरा चिन्तन, (२) प्रमादपूर्ण आचरण, (३) किसी को हिंसा के उपकरण आदि देना, (४) किसी को पाप-कार्य करने का उपदेश देना। देशावकाशिक-तीसरा गुणव्रत देशावकाशिक नाम से अभिहित हुआ है। इसके पीछे यह भाव है कि जिस देश या स्थान में जाने से गृही साधक या श्रावक का कोई व्रत भंग होता हो या उसमें दूषितता आती हो, उस स्थान में न जाया जाए । अर्थात् श्रावक उधर जाने से निवृत्त होता है । गुणवतों की सरचना से यह स्पष्ट है कि अणुव्रतों के माध्यम से आगे बढ़ता हुआ श्रावक इनके (गुण व्रतों के) द्वारा विशेष स्फूर्ति प्राप्त करता जाता है । कर्म, पद्धति, चिन्तन-इन तीनों का समन्वित स्वीकार गृही की गतिशीलता में एक विशेष प्रेरणा उत्पन्न करता है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचने पर लगता है कि अणुव्रतों के साथ-साथ गुणवतों का परिगठन जैन मनीषियों की सूक्ष्म सूझ का परिचायक है। साधना का उत्कर्ष : शिक्षाव्रतों की विशेषता गुणवतों के पश्चात् शिक्षाव्रतों के नाम से चार व्रत और निर्दिष्ट हुए हैं। वैसे इन्हें शिक्षाव्रत कहे जाने के पीछे संभवतः यह भाव रहा हो कि इनके परिपालन से गृही का व्रताभ्यास बढ़ता जाए। चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-(१) भोगोपभोग का परिमाण, (२) सामायिक, (३) पौषधोपवास, तथा (४) अतिथि संविभाग। भोगोपभोग-परिमाण-भोग ही संसार में वह वस्तु है, जिसका आकर्षण मानव को उसकी आत्म-स्थिति से विचलित कर उसे बहिर्मुख बना देता है। फलतः मानव संग्रह और संचय में जुट जाता है। जहाँ धन का संग्रह ही लक्ष्य हो जाता है, वहाँ औचित्य, अनौचित्य, न्याय, अन्याय, नीति, अनीति आदि का भाव स्वयं अपगत हो जाता है । यह मानव की प्रमत्त या उन्मत्त दशा है, जहाँ विवेक कुण्ठित रहता है । इस वैकारिक विस्तार का मुख्य हेतु भोग-लिप्सा है । एक साधनोन्मुख गृही की लिप्सा मिटनी चाहिए, यह आवश्यक है, यह शिक्षाव्रत इसी विचार-बिन्दु पर आधृत है। इसके अनुसार साधक अपने भोग्य-उपभोग्य पदार्थों का सीमाकरण करता है। इसका एक लक्ष यह भी है कि अपने अन्यान्य कार्यों या व्यवसायों का भी परिसीमन करता है, जिनका भोगपरक अथवा हिंसापरक जीवन से सीधा सम्बन्ध है। सामायिक-गृही साधक अंशत: व्रत पालन करता है पर, उसका अन्तिम लक्ष्य निरपवाद व्रतमय जीवन का स्वीकार है । सामायिक, अल्पकालिक ही सही, अध्यात्म-अभ्यासक्रम का एक ऐसा दिव्य प्रयोग है, जहाँ साधक भोग एवं हिंसा आदि अकरणीय कार्यों से विरत रहता हुआ आत्म-रस की अनुभूति की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है। अर्थात् कुछ समय (कम से कम एक मुहुर्ती के लिए वह एक साधु का सा जीवन अपनाता है। वहाँ उसके व्रत-स्वीकार की भाषा बनती है-मैं सभी सावध योग-पापपूर्ण प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान करता हूँ। सामायिक शिक्षाव्रत संघटना के पीछे गम्भीर तात्त्विक चिन्तन है। थोड़ी देर के लिए ही सही, श्रमण-जीवन की अनुभूति का यह सुन्दर उपक्रम है। यदि इसमें तन्मयता बढ़ती जाय, रसानुभूति होती जाय तो एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि वह (साधक) स्वतः समग्र भौतिक एषणाओं का परित्याग कर सम्पूर्णरूपेण साधना-रत हो जाए। - JHANNEL LIVE ARTI हासमा Fr AVEE -.- Jain Education international -..812 ___www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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