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________________ ३६२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० श्राद्ध, तर्पण आदि के द्वारा पुन्नामक नरक से बचाता है, वह पुत्र है, इसे और स्पष्ट समझें-जिनके सन्तति नहीं होती, उन्हें जलांजलि, तर्पण, श्राद्ध आदि कुछ भी प्राप्त नहीं होता । उनकी सद्गति नहीं होती । यदि किसी के पुत्र न हो तो उसकी पूर्ति के लिए हिन्दू धर्म में अपने किसी पारिवारिक व्यक्ति के बच्चे को पुत्ररूप में ग्रहण करने की व्यवस्था है, जिसे दत्तक पुत्र कहा जाता है । इसका उद्देश्य विशेषतः यही है कि औरस पुत्र द्वारा करणीय धर्म-विधान वह सम्पादित करे । तैत्तिरीयोपनिषद् में 'प्रजातन्तुमा व्यवच्छेत्सी' जो कहा गया है, उसके पीछे यही भाव है। उपर्युक्त विवेचन का सारांश यह है कि ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् व्यक्ति विधिवत् विवाह करे, सन्तान उत्पन्न करे तथा पारिवारिक व सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करे । गृहस्थ के पाँच महायज्ञ यदि हम गहराई में जाएँ तो प्रतीत होगा कि जीवन में हिंसा का क्रम अनवरत चलता है । संन्यासी या भिक्षु तो उससे बहुत कुछ बचा रहता है परन्तु गृहस्थ के लिए ऐसा संभव नहीं है । मनु ने गृहस्थ के यहाँ पाँच हिंसा के स्थान (वध-स्थल) बतलाये हैं। उन्होंने कहा है “पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।"२ चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली तथा जल-स्थान इनके द्वारा गृहस्थ के यहाँ जीवों की हिंसा प्रायः होती ही रहती है इसलिए मनु ने इन्हें वध-स्थल कहा है । इन पाँच स्थानों या हेतुओं से होने वाली हिंसा की निष्कृति या निवारण के लिए मनु ने पाँच महायज्ञों का विधान किया है "तासां क्रमेण सर्वासां, निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लुप्ता महायज्ञाः, प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।"५ वे पञ्च महायज्ञ इस प्रकार हैं "अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः, पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवौ बलिभौं तो, नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। ब्रह्म-यज्ञ, पितृ-यज्ञ, देव-यज्ञ, भूत-यज्ञ तथा मनुष्य-यज्ञ-ये पाँच महायज्ञ हैं। द्विजाति जन अपनी अधीत विद्या औरों को पढ़ाए, यह ब्रह्म-यज्ञ है । अपने पितृगण का तर्पण करे, यह पितृ-यज्ञ है, हवन करना देव-यज्ञ है, बलि वैश्वदेव यज्ञ, भूत-यज्ञ है तथा अतिथियों का सत्कार मनुष्य-यज्ञ है। बलि वैश्वदेव यज्ञ के सम्बन्ध में मनु ने कहा है "शुनां च पतितानां च, श्वपचां पापरोगिणाम् । वायसानां कमीणं च, शनकैनिविद् भूवि ॥" कुत्ते, पतित मनुष्य, चाण्डाल, पापरोगी, कौए और कीड़े-मकोड़े-इनके लिए भोजन में से छः भाग करके धीरे से भूमि पर डाल देना बलि वैश्वदेव यज्ञ है। यदि हम ध्यान से देखें तो इन पाँच महायज्ञों में तीन तो वे ही हैं, जिनका उपर्युक्त तीन ऋणों से सम्बन्ध है। उनके अतिरिक्त जो दो और हैं, उनका विशेष आशय है । बलि वैश्वदेव यज्ञ से यह प्रकट है कि वैदिक धर्म ने नीच और पतित कहे जाने वाले प्राणियों के प्रति भी दया का बर्ताव करने का स्पष्ट निर्देश किया है और उसे भी उतना ही पवित्र माना है, जितना अध्यापन, तर्पण व हवन जैसे उच्च कार्यों को माना है । उसके लिए प्रयुक्त यज्ञ शब्द इसका द्योतक है। अतिथि-सत्कार का भी वैदिक धर्म में बहुत बड़ा महत्त्व है । इसलिए उसे मनुष्य-यज्ञ कहा है । अतिथि के सम्बन्ध में तो यहाँ तक कहा है 圖圖圖圖圖圖 98680 am Jain Education International For Private & Personal Use Only www.iainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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