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________________ जैन-श्रमण : वेशभूषा-एक तात्त्विक विवेचन | ३८३ 000000000000 ०००००००००००० CD मृष्णा .. SARALIA KAHANI JAIMA ..... KITATUS लोक-सम्पर्क तो बढ़ता ही है अतएव समाज में जब श्रमणों का पूर्वापेक्षया अधिक समागमन होता गया, तब यह आवश्यक था कि उनका बहिरंग जीवन इस प्रकार का हो, जो सहसा लोक-प्रतिकूल भासित न हो। अर्थात् वस्त्रादि की दृष्टि से वह समुचिततया समायोजित हो। जैन परम्परा में श्रमण जीवन के, जैसा कि ऊपर कहा गया है, दो प्रकार के क्रम थे ही, आगे स्थविर-कल्प के विशेष रूप में प्रसृत होने में इसका अपना एक विशेष हाथ है। दूसरी बात यह भी हुई कि दैहिक संहनन-संघटन, जो उतरोत्तर अपेक्षाकृत दुर्बल होता जा रहा था, जिनकल्प के यथावत् परिपालन में बाधक बना । फलतः स्थविर कल्प बढ़ता गया । श्वेताम्बरों में मान्यता है कि भगवान महावीर से दो पीढ़ी बाद अर्थात् सुधर्मा और जम्बू के अनन्तर जिनकल्प विच्छिन्न हो गया। श्वेतवस्त्र : एक वैशिष्ट्य ऊपर के वर्णन में जैसा कि हमने उल्लेख किया है, भगवान पार्श्व की परम्परा में श्वेत वस्त्रों के साथ-साथ रंग-बिरगे वस्त्रों का भी प्रचलन था तथा भगवान महावीर की परम्परा में स्थविर कल्प में श्वेत वस्त्र का व्यवहार था । तत्पश्चात् केवल श्वेत वस्त्र का प्रयोग ही चालू रहा । भगवान पार्श्व के श्रमणों के सम्बन्ध में आगम साहित्य में चर्चा हुई है, वे ऋजुप्राज्ञ कहे गये हैं । अर्थात् वे बहुत सरल चेता थे। दिखावे का भाव तक उनके मन में नहीं आता था । जैसे वस्त्र उपलब्ध हुए, सफेद या रंगीन, ले लिये, धारण कर लिये । पर आगे चलकर कुछ लोक-वातावरण ऐसा बना कि साधुओं में भी ऋजुप्राज्ञता नहीं रही। इसलिए वस्त्रों के सम्बन्ध में भी यह निर्धारण करना आवश्यक हो गया कि वे केवल सफेद ही हों। श्वेत : निर्मलता का प्रतीक स्थूल दृष्टि से श्वेतता एक सहज रूप है। उसे किसी वर्ण या रंग की कोटि में नहीं लिया जाता । उस पर ही अन्य रंग चढ़ाये जाते हैं। अन्य रंग चाहे किसी भी प्रकार के हों, पौद्गलिक दृष्टि से मल ही हैं । मल का अर्थ मैल या गन्दगी नहीं है । मल एक विशेष पारमाणविक पुंज-स्टफ (Stuff)है। वह जब किसी से संयुक्त होता है तो उस मुल वस्तु के रूप में किंचित् परिवर्तन या विकार आ जाता है। विकार शब्द यहाँ खराबी के अर्थ में नहीं है-रूपान्तरण के अर्थ में है। यों पारमाणविक पुंज विशेष द्वारा प्रभावित या उसके सम्मिश्रण से विपरिणत वस्तु एक असहज अवस्था को पा लेती है। विभिन्न रंग की वस्तुएँ या वस्त्र जो हम देखते हैं, वे मूलभूत श्वेतता में विभिन्न रंगों के पारमाणविक पुंजों के सम्मिलन के परिणाम हैं। वह सम्मिलित भाग एक प्रकार का मल ही तो है, चाहे द्य तिमान्-कान्तिमान् हो । इससे फलित हुआ कि श्वेत उस प्रकार के मल से विरहित है। इसीलिए जैन परम्परा में इसका स्वीकार हुआ कि वह जैन श्रमण के निर्मल जीवन को प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्ति दे सके । जैन श्रमण के जीवन में सांसारिक मल-जिनके मूल में एषणा और अविरति है, नहीं होता। इसके साथ-साथ सूक्ष्मतया बचे-खुचे इस प्रकार के रागात्मक मल, कर्मात्मक मल के सर्वथा उच्छिन्न और उन्मूलित करने को एक जैन श्रमण कृत संकल्प होता है। उसका परम ध्येय है-अपने जीवन को कर्मपुंज और कषायों से उन्मुक्त कर शुद्ध आत्म-स्वरूप को अधिगत करना, जो निरावरण है, निर्द्वन्द्व है--निष्कलंक है । इस दिव्य निर्मलता को प्रकट करने में श्वेत वर्ण की अपनी अप्रतिम विशेषता है। परिवेश का स्वरूप भारतीय धर्मों की विभिन्न परम्पराओं में प्रायः इस ओर विशेष ध्यान रहा है कि श्रमण, भिक्षु, संन्यासी या परिव्राजक के वस्त्र कसे हुए न होकर ढीले हों। इसलिए सिले हुए वस्त्रों का भी प्रायः सभी परम्पराओं में विशेषतः वैदिक और जैन परम्पराओं में स्वीकार नहीं रहा। शायद यह भय रहा हो कि सिले हुए वस्त्रों का प्रयोग चल पड़ने से आगे सम्भवतः वस्त्रों में ढीलेपन या मुक्तता का रूप सुरक्षित न रह पाये । देह के लिए वस्त्र का दो प्रकार का उपयोग है । एक तो देह की अवांछित प्राकृतिक उपादानों से रक्षा तथा दूसरे अपने विचारों की अभिव्यंजना । वस्त्रों का ढीला होना शान्त, निर्विकार और सहज जीवन का प्रतीक है। चुस्त वस्त्र किसी न किसी रूप में मानसिक तनाव के प्रतीक हैं । जिन लोगों की लड़ाकू प्रकृति होती है, जो स्वभाव से तेज होते हैं, प्रायः हम उन्हें चुस्त वस्त्रों में पायेंगे । SRIDE-/
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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