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________________ ३५८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज–अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० __"शास्त्र रूपी समुद्र से तथा गुरु-मुख से जो मैंने प्राप्त किया, वह पिछले प्रकाशों (अध्यायों) में मैंने भलीभाँति विवेचित कर ही दिया है । अब, मुझे जो अनुभव से प्राप्त है, वह निर्मल तत्त्व प्रकाशित कर रहा हूँ,२७ ।" इस प्रकाश में उन्होंने मन का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। उन्होंने योगाभ्यास के प्रसंग में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट तथा सुलीन-यों मन के चार भेद किये हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि से इनकी विशद व्याख्या की है। योग-शास्त्र का यह अध्याय साधकों के लिए विशेष रूप से अध्येतव्य है। हेमचन्द्र ने विविध प्रसंगों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, औदासीन्य, उन्मनीमाव, दृष्टि-जय, मनौ जय आदि विषयों पर भी अपने विचार उपस्थित किये हैं । बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा के रूप में आत्मा के जो तीन भेद किये जाते हैं, वे आगमोक्त हैं । विशेषावश्यक भाष्य में उनका सविस्तार वर्णन है। इस अध्याय में हेमचन्द्र ने और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की है, जो यद्यपि संक्षिप्त हैं पर . विचार-सामग्री की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। करणीय __योग-दर्शन, साधना और अभ्यास के मार्ग का उद्बोधक है । उसकी वैचारिक पृष्ठ-भूमि या तात्त्विक आधार प्राय: सांख्य दर्शन है । अतएव दोनों को मिलाकर सांख्य-योग कहा जाता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही एक समग्र दर्शन बनता है, जो ज्ञान और चर्या जीवन के उभय पक्ष का समाधायक है । सांख्य दर्शन अनेक पुरुषवादी है। पुरुष का आशय यहाँ आत्मा से है । जैन दर्शन के अनुसार भी आत्मा अनेक हैं । जैन दर्शन और सांख्य दर्शन के अनेकात्मवाद पर गवेषणात्मक दृष्टि से गम्भीर परिशीलन वाञ्छनीय है। इसके अतिरिक्त पातञ्जल योग तथा जैन योग के अनेक ऐसे पहलू हैं, जिन पर गहराई में तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए। क्योंकि इन दोनों परम्पराओं में काफी सामंजस्य है । यह सामंजस्य केवल बाह्य है या तत्त्वत: उनमें कोई ऐसी सूक्ष्म आन्तरिक समन्विति भी है, जो उनका सम्बन्ध किसी एक विशेष स्रोत से जोड़ती हो, यह विशेष रूप से गवेषणीय है। AI १ श्वेताम्बर जैनों का आगम-साहित्य अर्द्धमागधी प्राकृत में है । २ दिगम्बर जैनों का साहित्य शौरसेनी प्राकृत में है। ३ योगसूत्र १-२ ४ योगसूत्र २, २६ ५ योगसूत्र १,३ । ६ तृणगोमयकाष्ठाग्निकण दीपप्रभोपमाः । रत्नतारार्कचन्द्रामाः सदृष्टेदृ ष्टिरष्टधा ।।-योगदृष्टि समुच्चय १५ ७ योगशास्त्र १, १५ ८ जाति देशकाल समयानवच्छिन्ना : सार्वभौमा महाव्रतम् । -योगसूत्र २,३१ है जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यानसाधनम् ।।--योगशास्त्र ४-१३४ १० शुभ प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता निर्जरा कहलाती है। १. अनशन, २. अनोदरी (अवमौदर्य), ३. भिक्षाचरी, ४. रस-परित्याग, ५. काय-क्लेश, ६. प्रतिसंलीनता, ७. प्रायश्चित्त, ८. विनय, ६. वयावृत्त्य (सेवा), १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान, १२. कायोत्सर्ग । सतीषु युक्तिस्वेतासु, हठान्नियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्य, विनिघ्नन्ति तमोऽञ्जनः ।। विमूढा: कर्तुमुधु क्ता, ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्तुभिः ।। -योगवासिष्ठ उपशम प्रकरण ६, ३७-३८ - HAR 圖圖圖圖 COM Lamuucausemama OTPISI PENGERUSER
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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