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________________ ३५० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० D उपाध्याय यशोविजय, जो अपने समय के बहुत अच्छे विद्वान थे, उन्होंने जैन योग की परम्परा को और अधिक पल्लवित तथा विकसित किया । पतञ्जलि का अष्टांग योग तथा जैन योग-साधना "योगश्चित्तवृत्ति निरोधः"3-चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णत: निरोध योग है, यह पतञ्जलि की परिभाषा है। वस्तुतः चित्त वृत्तियाँ ही संसार है, बन्धन है । जब तक वृत्तियाँ सर्वथा निरुद्ध नहीं हो पाती, आत्मा को अपना शुद्ध स्वरूप विस्मृत रहता है । उसे मिथ्या सत्य जैसा प्रतीत होता है । यह प्रतीति ध्वस्त हो जाय, आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप अधिगत करले, अथवा दूसरे शब्दों में अविद्या का आवरण क्षीण हो जाय, आत्मा परमात्म-स्वरूप बन जाय यही साधक का चरम ध्येय है । यही बन्धन से छुटकारा है । यही सत्चित् आनन्द की प्राप्ति है। इस स्थिति को पाने के लिए चैतसिक वृत्तियों को सर्वथा रोक देना, मिटा देना आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति का मार्ग योग है। महर्षि पतंजलि ने योग के अंगों का निम्नांकित रूप में उल्लेख किया। "यम नियमा सनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ।"४ अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणाध्यान तथा समाधि-पतञ्जलि ने योग के ये आठ अंग बताये हैं। इनका अनुष्ठान करने से चैतसिक मल अपगत हो जाता है। फलतः साधक या योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक पहुंच जाता है। दूसरे शब्दों में उसे बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों से सर्वथा भिन्न आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। यही "तदा द्रष्टुःस्वरूपेवस्थानम्"५ की स्थिति है। तब द्रष्टा केवल अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है । जैन दर्शन के अनुसार केवल ज्ञान, केवल दर्शन, आत्मिक सुख, क्षायिक सम्यकत्व आदि आत्मा के मूल गुण हैं, जिन्हें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों ने अवरुद्ध या आवृत्त कर रखा है। आत्मा पर आच्छन्न इन कर्मावरणों के सर्वथा अपाकरण से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। उसी परम शुद्ध निरावरण आत्म-दशा का नाम मोक्ष है। योग-साधना में आचार्य हरिभद्र का मौलिक चिन्तन आचार्य हरिभद्रसूरि अपने युग के परम प्रतिभाशाली विद्वान् थे। वे बहुश्रु त थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थ वृत्ति के थे । उनकी प्रतिभा उन द्वारा रचित अनुयोग-चतुष्टयविषयक धर्मसंग्रहणी (द्रव्यानुयोग), क्षेत्रसमास-टीका (गणितानुयोग), पञ्चवस्तु, धर्म बिन्दु (चरणकरणानुयोग), समराइच्चकहा (धर्मकथानुयोग) तथा अनेकान्त जय पताका (न्याय) व भारत के तत्कालीन दर्शन आम्नायों से सम्बद्ध षड्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों से प्रगट है। योग के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह केवल जैन-योग साहित्य में ही नहीं, बल्कि आर्यों की समग्र योग-विषयक चिन्तन-धारा में एक मौलिक वस्तु है । जैन शास्त्रों में आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थान तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा-इन आत्म-अवस्थाओं आदि को लेकर किया गया है । आचार्य हरिभद्र ने उसी अध्यात्म-विकास क्रम को योगरूप में निरूपित किया है। उन्होंने ऐसा करने में जिस शैली का उपयोग किया है, वह संभवतः अब तक उपलब्ध योग विषयक ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है। उन्होंने इस क्रम को आठ योग दृष्टियों के रूप में विभक्त किया है। योग दृष्टि समुच्चय में उन्होंने निम्नांकित प्रकार से आठ दृष्टियाँ बताई हैं "मित्रा' तारा बला दीप्रा', स्थिरा' कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीना, लक्षणं च निबोधत ॥ इन आठ दृष्टियों को आचार्य हरिभद्र ने ओघदृष्टि और योग-दृष्टि के रूप में दो भागों में बाँटा है। ओघ का अर्थ प्रवाह है। प्रवाह-पतित दृष्टि ओघ-दृष्टि है। दूसरे शब्दों में अनादि संसार-प्रवाह में ग्रस्त और उसी में रस लेने वाले भवाभिनन्दी प्रकृत जनों की दृष्टि या लौकिक पदार्थ विषयक सामान्य दर्शन ओघ-दृष्टि है । योग-दृष्टि ओघ -दृष्टि का प्रतिरूप है। ओष-दृष्टि जहाँ जागतिक उपलब्धियों को अभिप्रेत मानकर चलती है, वहाँ योग-दृष्टि का प्राप्य केवल बाह्य जगत् ही नहीं आन्तर जगत् भी है। उत्तरोत्तर विकास-पथ पर बढ़ते-बढ़ते अन्तत: केवल आन्तर जगत् ही उसका लक्ष्य रह जाता है । RON CROR Water Personal use only www.jamenbrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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