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________________ ८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० ...... ANINTMAL हैं । यह लघु भूमिका जैनेन्द्रीय संयम-साधना का प्रारम्भिक रूप रहता है। तत्पर संयमार्थी प्रायः सातवें दिन ही संयम की परिपूर्ण भूमिका स्वरूप छेदोपस्थानीय में स्थित हो जाते हैं। श्री अम्बालालजी महाराज भी सातवें दिन संयम की इस उन्नत भूमिका को पा गये । यह समायोजन भादसोड़ा में हुआ। एक ऐतिहासिक स्मृति मेवाड़ का गौरव जैसे भारत में सर्वोपरि है, जैन-जगत में मेवाड़ का जैन सम्प्रदाय भी उसी यश के अनुरूप सर्वदा श्रेष्ठ रहा है। यह निर्विवाद सत्य है कि सम्प्रदाय के तत्कालीन साधु-समुदाय में पूज्य श्री मोतीलालजी म. जो उस समय आचार्य पद पर तो थे नहीं फिर भी सम्प्रदाय में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण था। वे मेवाड़ की गौरवास्पद स्थिति के अनुरूप अपनी सुदृढ़ संयम-साधना के प्रति पूर्ण सजग थे । मेवाड़ सम्प्रदाय के ही कुछ मुनियों के साथ पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज का कुछ बातों को लेकर मतभेद हो गया था। मुनि-मार्ग के पथिकों का अनैक्य अहैतुक या तुच्छाधारित तो हो नहीं सकता, उसके पीछे कुछ गम्भीर कारण थे। पूज्यश्री की शास्त्रसम्मत एक स्पष्ट विचारधारा थी। वे संयम की पवित्रता के जबर्दस्त पक्षधर थे । जहाँ कहीं उन्हें उस पवित्रता की उपेक्षा नजर आई, वे चुप नहीं रह सकते थे। मतभेदों का मूल कारण यह भी था । मतभेद मनभेद तक पहुंच रहा था । पारस्परिक कलह मेवाड़ के धर्मोपासकों के लिये बड़ा हानिप्रद होने लगा। मेवाड़ का जैन संघ तथा उसके अग्रगण्य बड़ी चिन्ता में थे। मुनियों का पारस्परिक अनक्य समाज के विकास में सैकड़ों बाधाओं को जन्म दे रहा था। प्रधान हितचिन्तक श्रावक-श्राविका इस अनैक्य का कोई समाधान चाहते थे । बहुत विस्तृत विचार-विमर्श हुआ। प्रधान श्रावकों ने इस अनैक्य को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर समुचित कदम उठाया। फलतः आयड़ में मेवाड़ के श्रावकों की एक महत्त्वपूर्ण बैठक हुई। दोनों पक्ष के मुनिराज भी वहाँ उपस्थित थे। संघ ने अपनी पीड़ा सन्तों के सामने रखी । गुत्थियां गहरी थीं। किन्तु सुलझाना उससे भी ज्यादा आवश्यक था। श्री फोजमलजी कोठारी, श्री गहरीलाल जी खिमेसरा की उपस्थिति में विचारों का आदान-प्रदान हआ। लम्बे समय से विचारों में जो दरारें थीं उनको पाटना आसान न था । किन्तु बातावरण का ऐसा असर था कि मुनिवृन्द को समाधान के निकट पहुँचना ही पड़ा। समाधान केवल ऐसे ही नहीं करना था कि सब की चुप; समाधान युक्तियुक्त आवश्यक था। पूज्य मोतीलालजी महाराज सत्य को स्पष्टता तो देना चाहते ही थे, साथ ही मुनि-जीवन अपनी शास्त्रसम्मत मर्यादा के अधीन बरते, यह उनका अपना आग्रह था । हर्ष का विषय है कि युक्तियुक्त शास्त्रसम्मत समाधान सिद्ध हुआ और संघ में हर्ष छा गया। गुरुदेव कहा करते हैं कि आयड़ की यह बैठक मेवाड़ के श्रावकसंघ की अद्भुत शक्ति का मूर्तरूप था। चतुविध संघ में श्रावक समाज कितना और कैसा महत्त्व रखता है, इसका परिचय मुझे इस बैठक से मिला । जहाँ से मिला वहीं से लिया जिज्ञासा व्यक्ति के विकास का मनोवैज्ञानिक उपादान है । जिसमें यह जागृत है, उसमें निमित्त मिल ही जाया करते हैं। निमित्त की खोज से अधिक उपादान की जागृति आवश्यक होती है। जिसका उपादान जागा है, उसे निमित्त मिला है । यह अनुभव सिद्ध तथ्य है । नव-दीक्षित मुनि श्री अम्बालालजी म. दीक्षित होकर अध्ययन की ओर प्रवृत्त हुए। . पूज्य श्री मोतीलालजी म. ने मुनिश्री की हार्दिक आकांक्षा को पहचान कर शास्त्राभ्यास की तरफ प्रेरित किया। प्रारम्भ में स्तोक (थोकड़ा) ज्ञान का आलम्बन लिया। जैन सिद्धान्त के अध्ययन के लिये स्तोक ज्ञान एक ऐसी सड़क है जो अभ्यासी को गम्भीर तत्त्वज्ञान तक पहुँचा देती है। अल्प बुद्धि वाले साधारण अभ्यासी भी स्तोक-ज्ञान द्वारा सिद्धान्तवादी हो जाया करते हैं। शास्त्र रूपी ताले को खोलने में स्तोक ज्ञान चाबी का काम करता है। 0000 SUNO 0000 क Jain Education memuona For Private & Personal use only DO
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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