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________________ No----------------------- -----------2 o आचार्य श्रीआनन्द ऋषि [श्रमण संघ के प्रभावक आचार्य 000000000000 ०००००००००००० चेतनावादी जैनदर्शन ने चेतन (जीव) के विषय में जितना गहरा चिन्तन किया है, अचेतन (जड़-पुद्गल) के विषय में भी उतनी ही गम्भीरता से अन्वेषण किया है। । पुद्गल (Matter) के सम्बन्ध में जैन तत्त्वविद्या का । यह चिन्तन पाठकों को व्यापक जानकारी देगा। जैनदर्शन में अजीव द्रव्य जैनदर्शन यथार्थवादी और द्वतवादी है। स्पष्ट है कि वह चैतन्य मात्र को ही एक मात्र तत्त्व के रूप में स्वीकार न करके अजीव द्रव्य को भी स्वीकार करता है । अजीव वह द्रव्य है जो तीनों प्रकार की चेतनाओं-चेतना (Consciousness), अर्ध-चेतना (Sub-Consciousness) और अलौकिक चेतना (Super-Consciousness) से रहित है । अर्थात् जिसमें चेतनागुण का पूर्ण अभाव है। जिसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है वह अजीव द्रव्य है।' पर यह भावात्मक तत्त्व है, अभावात्मक नहीं। इसके चार भेद हैं-अजीवकाया; धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ।। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय ये चार अजीवकाय हैं । इन्हें अस्तिकाय कहने का तात्पर्य है कि ये विस्तार युक्त है अर्थात् ये तत्त्व सिर्फ एक प्रदेश रूप या अवयव रूप नहीं है किन्तु प्रदेशों के समूह रूप है । यद्यपि पुद्गल मूलतः एक प्रदेश रूप है लेकिन उसके प्रत्येक परमाणु में प्रचय रूप होने की शक्ति है । काल की गणना इन अस्तिकायों में नहीं की गयी है । क्योंकि कुछ जैनाचार्य उसको स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में नहीं स्वीकार करते हैं और जो उसे द्रव्य मानते हैं । वे भी उसे प्रदेशात्मक ही मानते हैं। प्रदेश प्रचय रूप नहीं। आकाश और पुद्गल ये दो तत्त्व न्याय सांख्य आदि दर्शनों में माने गये हैं परन्तु धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय जैन-दर्शन की देन है। इनके अस्तित्व की पुष्टि विज्ञान से भी होती है। विज्ञान तेजोवाही ईथर, क्षेत्र (Field) और आकाश (Space) इन तीनों को मानता है। उसकी दृष्टि में तेजोवाही ईथर सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है तथा विद्युत चुम्बकीय तरंगों की गति का माध्यम है। प्रो० मैक्सवान ने लिखा है कि ईथर सामान्य पार्थिव वस्तुओं से भिन्न होना चाहिए । वैज्ञानिक सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि की स्थिरता का कारण गुरुत्वाकर्षण को मानते हैं। संभव है वे आगे जाकर इसकी अपौद्गलिकता को स्वीकार कर लें। अब हम साधर्म्य व वैधयं के दृष्टिकोण से इन द्रव्यों पर विचार करेंगे । अपने सामान्य तथा विशेष स्वरूप से च्युत न होना नित्यत्व है और अपने से भिन्न तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त न करना अवस्थितत्व है । ये दोनों धर्म सभी द्रव्यों में समान हैं। इससे स्पष्ट है कि जगत अनादि निधन है तथा इसके मूल तत्त्वों की संख्या एकसी है। पुद्गल को छोड़कर अन्य कोई द्रव्य मूर्त नहीं है क्योंकि वे द्रव्य इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, अतएव अरूपित्व पुद्गल को छोड़कर शेष चार द्रव्यों का साधर्म्य है । धर्म, अधर्म, आकाश ये द्रव्य संख्या में एक व्यक्ति हैं और ये निष्क्रिय भी है अत: व्यक्तित्व और निष्क्रियत्व ये दोनों उक्त द्रव्यों का साधर्म्य तथा जीव और पुद्गल का वधर्म्य है । यहाँ निष्क्रियत्व से तात्पर्य गतिक्रिया से है न कि परिणमन से, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है। आकाश के जितने स्थान को एक अविभागी पुद्गलपरमाणु रोकता है, वह प्रदेश है । परमाणु जबकि अपने स्कन्ध से अलग हो सकता है पर प्रदेश नहीं । प्रदेश की अपने स्कन्ध से विमुक्त होने की कल्पना सिर्फ बुद्धि से की जाती है । धर्म, अधर्म, आकाश एक ऐसे अखण्ड स्कन्ध रूप हैं जिनके असंख्यात अविभाग्य सूक्ष्म अंश सिर्फ बुद्धि से कल्पित किये जा सकते हैं । इनमें से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय प्रदेशी हैं । आकाश अन्य द्रव्यों से बड़ा होने के कारण अनन्त प्रदेशी है । इस प्रकार अखण्डता पुद्गल को छोड़कर बाकी V NE Nain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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