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________________ ३३० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० A Ummy MISS राग, द्वेष आदि की तरंगों से जिसका मन-रूपी जल चञ्चल नहीं होता, वही तत्त्ववेत्ता-वस्तु-स्वरूप को यथावत् रूप में जानने वाला आत्म-तत्त्व का साक्षात्कार करता है, दूसरा नहीं । मुण्डकोपनिषद् में एक बहुत सुन्दर रूपक है 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीश मस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥"२१ दो पक्षी थे । एक साथ रहते थे। दोनों मित्र थे। एक ही वृक्ष पर बैठे थे। उनमें से एक उस पेड़ का स्वादिष्ट फल खा रहा था। पर आश्चर्य है कि दूसरा (पक्षी) कुछ भी नहीं खा रहा था, केवल आनन्दपूर्वक देख रहा था । अर्थात् कुछ भी न खाते हुए भी वह परम आह्लादित था । यहाँ ये दोनों पक्षी जीवात्मा और परमात्मा के प्रतीक हैं पहला जीवात्मा का और दूसरा परमात्मा का । यहाँ इस पद्य का आशय यह है कि जीवात्मा शरीर की आसक्ति में डूबा हुआ कर्मों के फल का उपभोग कर रहा है, अविद्या के कारण उसमें सुख, जिसे सुखामास कहना चाहिए, मान रहा है। परमात्मा स्वयं आनन्दस्वरूप है । कर्मों के फल-भोग से उसका कोई नाता नहीं। इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि जीवात्मा शरीर की आसक्ति में डूबा रहने से दैन्य का अनुभव करता है जब वह परमात्मा को देखता है, परमात्म-माव की अनुभूति में संविष्ट होता है, तब उसको उनकी महिमा का भान होता है और वह शोक-रहित बन जाता है। इन पद्यों में उपनिषद् के ऋषि ने आसक्ति और अनासक्ति का अपनी भाषा में अपनी शैली में निरूपण किया है। जीवात्मा और परमात्मा व्यक्तिश: दो नहीं हैं। जब तक वह अविद्या के आवरण से आवृत है, उसकी संज्ञा जीवात्मा है । ज्योंही वह आवरण हट जाता है, शुद्ध स्वरूप, जो अब तक अवगुण्ठित था, उन्मुक्त हो जाता है। तब उसकी संज्ञा परमात्मा हो जाती है। यहाँ बहुत उत्सुकता से फल को चखने, खाने और उसमें आनन्द मानने की जो बात ऋषि कहता है, उसका अभिप्राय सांसारिक भोग्य पदार्थों में आसक्त हो जाना या उनमें रम जाना है। चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाने पर अज्ञान से दुःख में सुख मानने की भ्रान्ति अपगत होने लगती है, परमात्मता अनुभूत होने लगती है । पर पदार्थ निरपेक्ष परमात्म-भाव की गरिमा उसे अभिभूत कर लेती है। परमात्म-माव की उज्ज्वलता, दिव्यता, सतत सुखमयता, चिन्मयता जीवात्मा में एक सजग प्रेरणा उत्पन्न करती है। अविद्या का पर्दा हटने लगता है, शोक मिटने लगता है, जीवात्मा की यात्रा परमात्म-माव की ओर और तीव्र होने लगती है । इन्द्रियों की दुर्जेयता : आत्म-शक्ति की अवतारणा ___ आसक्ति-वर्जन, इन्द्रिय-संयम आदि के सन्दर्भ में ऊपर विस्तार से चर्चा की गई है। पर, जीवन में वैसा सघ पाना कोई सरल कार्य नहीं है। यही कारण है, गीताकार ने कहा है "यततो ह्यपि कौन्तेय ! पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि, हरन्ति प्रसभं मनः ।। इन्द्रियाणां हि चरतां, यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां, वायु वभिवाम्भसि ।। क क 20000 : COPE 020/NDDO NARAR 100 Marwasana s anvaaTOURIHOTR
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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