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________________ ३२४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ स्वभाविक तुम स्नेह का मिटा देना । सूत्रकामा शरद ०००००००००००० ०००००००००००० SYA AD पवास LAADIL AISEASE .. RAKEELATES MRITATEL में भावना को वस्तु-विशेष या विषय-विशेष में अटका लेने का जो स्वभाव है, वह भी एक तरह की चिकनाई या चेप ही तो है। इसीलिए सूत्रकार ने साधक को सम्बोधित करते हुए कहा है कि तुम स्नेह का उच्छेद कर डालो। उच्छेद शब्द का भी अपने आप में एक विशेष महत्त्व है । उच्छेद (उत्+छेद) का अर्थ है बिल्कुल मिटा देना । सूत्रकार ने बड़ी सुन्दर कल्पना की है कि यदि स्नेह या आसक्ति का बन्धन टूट गया तो साधक वैसा ही निर्मल बन जायेगा, जैसा शरद् ऋतु के निर्मल जल में तैरता हुआ कमल, जो जल से सर्वथा अलिप्त रहता है। भारतीय संस्कृति में कमल निर्मलता और पवित्रता का प्रतीक है । आत्मा में वैसी निर्मलता आने का अर्थ है, उसका वासना-प्रसूत विजातीय भावों से मुक्त होना । गीताकार ने 'प्रसादमधिगच्छति' इन शब्दों द्वारा जो बात कही है, यदि हम उसकी प्रस्तुत प्रसंग से तुलना करें अतोबड़ी अच्छी संगति प्रतीत होगी। इसी प्रकार का एक दूसरा प्रसंग है 'कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसंगओ।"५ यहां सूत्रकार ने श्रमण-धर्म, जो जीवन का निर्विकार, आत्म-समर्पित साधना-पथ है, के प्रतिपालन के सन्दर्भ में कहा है कि जो काम-राग का निवारण नहीं कर सकता, वह कदम-कदम पर विषाद पाता है। क्योंकि काम-रागी पुरुष में मनःस्थिरता नहीं आ पाती। वह अपने आपको संकल्प-विकल्प में खोये रखता है, उससे श्रामण्य-श्रमण-धर्म का पालन कैसे हो सकता है ? कहने का अभिप्राय यह है कि कामराग, गीताकार के अनुसार विषय-ध्यान, संग तथा काम के भाव का उद्बोधक है । गीताकार इस विकार-त्रयी से फलने वाले जिस विनाश की बात कहते हैं, दशवकालिककार संक्षेप में उसी प्रकार का भाव काम-राग और संकल्प-विकल्प से निष्पन्न होना बतलाते हैं। संकल्प-विकल्प स्मृति-भ्रंश से ही उद्भूत होते हैं, जो बुद्धि के चाञ्चल्य के परिचायक हैं । बुद्धि-विनाश का यही अर्थ है कि उससे जो विवेक-गर्मित चिन्तनमूलक निष्कर्ष आना चाहिए, वह नहीं आता-विपरीत आता है, जिसका आश्रयण मानव को सद्य:विपथगामी बना देता है। एक और प्रसंग है, साधक कहता है "रागद्दोसादओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा । ते छिन्दित्त जहानायं, विहरामि जहक्कम ॥"६ अर्थात् तीव्र राग-भाव, द्वेष-भाव तथा और भी जो स्नेहात्मक भयावह पाश हैं, मैं यथोचित रूप से उन्हें उच्छिन्न कर अपने स्वभाव में विहार करता हूँ। यहाँ दो प्रकार के भाव हैं । एक पक्ष यह है कि तीव्र राग, तीव्र द्वष, आसक्त भाव-ये बड़े भयजनक बन्धन हैं । अर्थात् इनसे मानव स्वार्थी, कुण्ठित तथा संकीर्ण बनता है । ये आत्म-विमुख भाव हैं । इसीलिए इन्हें बन्धन ही नहीं, भयानक बन्धन कहा है । यहाँ प्रयुक्त पाश शब्द बन्धन से कुछ विशेष अर्थ लिये हुए है । यह फन्दे या जाल का बोधक है, जिसमें फंस जाने या उलझ जाने पर प्राणी का निकलना बहुत ही कठिन होता है। दूसरा पक्ष यह है कि अपनी सुषुप्त आत्म-शक्ति को जगाकर मनुष्य यदि इन्हें वशंगत कर लेता है, जीत लेता है, दूसरे शब्दों में इन्हें विध्वस्त कर देता है तो असीम आनन्द पाता है। 'विहामि जहक्कम' और 'प्रसादमधिगच्छति' का कितना सुन्दर सादृश्य है, जरा चिन्तन करें। साधक को विकार के पथ पर धकेलने वाली इन वासनात्मक अन्तर्वृत्तियों की विजय के लिए जैन आगम वाङ्मय में अनेक प्रकार से मार्ग-दर्शन दिया गया है, इनके प्रत्याख्यान या परित्याग की आवश्यकता पर बहुत बल दिया गया है। जैसे कहा है "कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो ।। उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चाज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥" जब किसी व्यक्ति के उदर में, जो शारीरिक स्वास्थ्य का केन्द्र है, विकार उत्पन्न हो जाता है तो यह आवश्यक 40 98060 COMCOM iu00
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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