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________________ अभिनन्दनीय वृत्त : सौभाग्य मुनि 'कुमुद' | ५ ०००००००००००० ०००००००००००० ....." श्री भारमल जी महाराज सहित हथियाना पधारे थे । उन्हें भी बहुत अच्छे शकुन हो रहे थे। किन्तु रहस्य रहस्य ही था। श्री भारमल जी महाराज श्री अम्बालाल जी के ममेरे भाई होते थे। यह बहुत ही संक्षिप्त रिश्ता था और वहाँ अवकाश में थे । अतः इसी छोटे-से रिश्ते को याद कर अम्बालालजी श्री भारमलजी महाराज के पास पहुंच गये। बातें चलीं, भारमलजी महाराज ने पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज को बताया कि यह मेरा ममेरा भाई है। पूज्यश्री ने सहज ही कह दिया- "तो, अम्बालालजी ! सच्चे भाई बन जाइये !" बस इसी एक वाक्य ने अम्बालालजी के मन पर जादू-सा असर कर दिया। अम्बालालजी अब एक अनजानी नई दिशा में सोचने लगे। दिन भर मनोमंथन चलता रहा । अन्ततोगत्वा एक दृढ़ निश्चय उत्तर आया-संयम लेना। पूज्यश्री के सामने मन को स्पष्ट खोलते हुए अम्बालालजी ने अपने विचार प्रकट किये। पूज्यश्री को यह कल्पना तक न थी कि मेरा एक वाक्य इसको यों मोड़ देगा। पूज्यश्री ने संयम की कठोरता, परिषहों की भीषणता और संयम में आने वाली विघ्न-बाधाओं का विस्तृत वर्णन करते हुए आग्रह किया कि जो कुछ निश्चय किया जाए वह किसी लहर में बहकर न हो। निश्चय के पूर्व बहुमुखी चिन्तन से वस्तुस्थिति का, साधन और सामर्थ्य का विस्तृत विचार कर लेना चाहिए। पूज्यश्री जिन बातों की तरफ सोचने को कह रहे थे, अम्बालालजी पहले ही सब कुछ सोच चुके थे। मंथन तो पहले हो चुका था, अब तो केवल तैयार मक्खन था, जो पूज्यश्री के सम्मुख रखा गया था। बात अब केवल बात नहीं थी, दृढ़ निश्चय था । वह छुप भी नहीं सकता था और न छुपाना था। तेजी से चारों तरफ यह हवा फैल गई। कानमलजी ने पुनः भादसोड़ा चलने का आग्रह किया किन्तु दृढ़ निश्चयी अम्बालालजी टस से मस नहीं हुए। कानमलजी वोहरा ने सारे समाचार माहोली दादी को लिख भेजे। भाई रंगलालजी और कुछ सज्जन हथियाना पहुँचे । घर ले जाने के कई यत्न किये, किन्तु उन्हें भी सफलता नहीं मिली । एक बार भादसोड़ा भी कई लोग आये और इन्हें जबरन उठा ले जाने का प्रयत्न करने लगे, किन्तु वे सफल न हो सके। त्याग के मार्ग पर जैन मुनि का जीवन त्याग की पराकाष्ठा का जीवंत प्रतीक होता है। उसमें पूर्णता पाना एकाएक सम्भव नहीं होता । दीर्घ अभ्यास व सुदृढ़ मानसिक संबल के बिना जैन मुनित्व की साधना सध जाए, यह सम्भव नहीं। वैराग्यमूर्ति अम्बालालजी को साधुत्व का संपुष्ट अवलम्बन मिलना अभी कठिन लग रहा था। किन्तु साधना का सम्बन्ध केवल वेश से तो है नहीं। सचित्त जल का त्याग करके अन्य आरम्भादि के त्याग कर दिये। प्रतिदिन दयाव्रत करना और भिक्षा से आहार लाना प्रारम्भ कर दिया। त्याग के इस प्रकट स्वरूप से जैन समाज तो प्रभावित था ही, सैकड़ों अजैन भी बहुत प्रभावित होकर धन्य-धन्य कहते थे। बावीस मील का सफर “श्रेयांसि बहुविध्नानि भवन्ति महतामपि" श्रेष्ठ कार्यों में प्रायः विघ्न आया ही करते हैं। वैरागी अम्बालाल जी के प्रखर त्याग की सर्वत्र चर्चा फैल चुकी थी। माहोली में दादी ने सुना तो छोटे भाई रंगलाल को प्रेरित कर साथ में कुछ और सम्बन्धियों को भेजकर अम्बालालजी को घर लाने की बात बना ली। तब अम्बालालजी आकोला थे । यहीं पर सब दल बनाकर पहुंचे और अम्बालालजी को जबरदस्ती उठाकर छकड़े में डालकर माहोली ले आये। माहोली में अम्बालालजी अब इनके पूर्ण शिकंजे में थे। वैराग्य के लिए कई अन्धविश्वासपूर्ण टोटके किये जाने लगे। उन अज्ञानियों को यह विश्वास कैसे हो गया कि बाल कटाने से या अन्य बाह्य क्रिया से मानसिक स्तर पर पनपने वाला वैराग्य भी हट सकता है ? समझदारों की बुद्धि में तो यह बैठता ही नहीं । भ्रमित लोगों ने सब कुछ किया, किन्तु वह नहीं हो सका, जो उन्होंने सोचा । अम्बालालजी अपना निश्चय नहीं बदल सके । खमनौर (हल्दीघाटी) में कोई निकट के सम्बन्धी हैं, उन्होंने समझाने का दायित्व लिया और अम्बालालजी - .. . Short
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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