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________________ ---0-0--0--0--0--0--0-0-0-0-0--0----0--0--02 -- 0 श्री श्रीचंद गोलेचा 0 श्री कन्हैयालाल लोढ़ा एम० ए० गहन-गम्भीर जैन तत्त्वविद्या को समझने की कुजी है—'नय' । विभिन्न दृष्टियों से वस्तुतत्त्व के परीक्षण की । यह विद्या जैन आगमों में पूर्ण विकसित हुई है। अनुयोगद्वार एवं षट्खंडागम के आधार पर नय का विवेचन यहाँ । प्रस्तुत है। ०००००००००००० ०००००००००००० Shro-o-o-o-o-or-o-o-o-o-o-o-o-o-o-o-o-o-3 आगमकालीन नय-निरूपण जनदर्शन में श्रुतज्ञान को समझने-समझाने की विशेष विधा है । इस विधा का निरूपण करने वाला आगम कालीन शास्त्र अनुयोगद्वार है । इसमें उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगों द्वारा 'श्रुत' के अभिप्राय को यथार्थ रूप में समझने की विधि का विशद रूप से वर्णन है । इन चार अनुयोगों में निक्षेप और नय का वर्णन मुख्य रूप से केवल अनुयोगद्वार सूत्र में ही पाया जाता है और इनका उपयोग मुख्य रूप से षट्खंडागम में हुआ है । भाषा को समझने के लिए कोष और व्याकरण का जो स्थान है, वही स्थान श्रुत (आगम) को समझने के लिए निक्षेप और नय का है। अनुयोगद्वार और षट्खंडागम के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'नय' शब्द अर्थात् वाच्य द्वारा प्रतिपादित 'अर्थ' की अवस्था का वास्तविक व निश्चयात्मक ज्ञान कराने का साधन मात्र है । यह अवस्था द्रव्य, गुण, क्रिया और पर्याय में से किसी से भी सम्बन्धित हो सकती है। प्रस्तुत लेख में अनुयोगद्वार एवं षट्खंडागम इन्हीं दो ग्रन्थों के आधार से नय के स्वरूप का विचार किया जाता है। _ 'अनुयोगद्वार' में सात नयों का विधान है । परन्तु मुख्यतया पाँच ही नयों का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार षट्खंडागम में भी इन्हीं पाँच नयों के आधार पर ही वर्णन है। शब्द नय के दो भेद समभिरूढ़ तथा एवंभूत नय का इसमें कहीं नाम भी नहीं आया है। किन्तु इसमें कोई सैद्धान्तिक अन्तर नहीं है । कारण कि इन दोनों नयों का समावेश शब्द नय में ही हो जाता है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी इन्हीं पाँच नयों का उल्लेख है। अनुयोगद्वार में सात नय इस प्रकार हैं-१, नैगम नय, २. संग्रह नय, ३. व्यवहार नय, ४. ऋजुसूत्र नय, ५. शब्द नय, ६. समभिरूढ़ नय और ७. एवंभूत नय ।। नैगम नय-वह कथन जिससे एक से अधिक रूपों, अवस्थाओं का बोध हो अर्थात् शब्द द्वारा प्रतिपादित अर्थ जहाँ भेद-प्रभेद को लक्षित करता हो । जहाँ किसी भी द्रव्य, गुण, क्रिया के भेद-उपभेद का अभिप्राय लक्षित हो । संग्रह नय-वह वर्णन जिससे अनेक रूपों, अवस्थाओं का एकरूपता में कथन हो अर्थात् अपने वर्ग रूप में अर्थ का प्रतिपादन करता हो । द्रव्य, गुण, क्रिया, पर्याय आदि के अनेक रूपों या भेदों के समूह का अभिप्राय लक्ष हो । . व्यवहार नय-वह कथन जिसका बोध किसी अन्य के आश्रय, अपेक्षा, आरोप से सम्बन्धित होने से प्रयास पूर्वक हो। ऋजुसूत्र नय-वह कथन जिसका आशय सरलता से अनायास समझ में आ जावे । अर्थात् कथन का लक्ष्य सरल सहज अवस्था में हो। शब्द नय--वह कथन जिसमें शब्द के अर्थ की प्रधानता से बोध हो । समभिरूढ़ नय-वह कथन जिसमें शब्द का अर्थ किसी विशेष रूप, व्यक्ति, वस्तु आदि में रूढ़ हो ।
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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