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________________ २७८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 ...... Hशाण से प्राप्त होता है । यदि शास्त्रोक्त 'ज्ञान' की परिभाषा ही सही मानी जावे, तो भी दर्शन बौद्धिक पद्धति को निरूपित करेगा और 'ज्ञान' प्रयोगात्मक पद्धति को। इस दृष्टि से जैनदर्शन का 'ज्ञान' शब्द आज के 'विज्ञान' शब्द का पर्यायवाची बन जाता है । लेकिन धर्मसम्मत 'ज्ञान' को त्रैकाल्य-प्रामाणिकता दी गई है, जो विज्ञान नहीं मानता है । अन्तर्द्वन्द्व और वैज्ञानिक कसौटी धार्मिक मान्यता के अनुसार हम अवसर्पिणी युग में चल रहे हैं और हमारी प्रगति नकारात्मक हो रही है । यह तथ्य आध्यात्मिकता की दृष्टि से ही सही बैठता है, भौतिक दृष्टि से तो यह युग प्रगति की सीमाओं को स्पर्श करता प्रतीत होता है। पिछले पाँच हजार वर्ष का इतिहास इसका साक्षी है कि हम कैसे जंगलों से निकलकर नगरी-जीवन में आये । आज का साधारण-जन भी इस दुविधा में है कि वह अपने इस विकास को प्रगति कहे या अवनति ? तभी उसे ध्यान आता है-साकार ज्ञान । वास्तविक ज्ञान तो वह है जो प्रयोगसिद्ध तथ्यों के आधार पर किया जाये । हमारे शास्त्रोक्त ज्ञान की प्रामाणिकता भी आज प्रायोगिक कसौटी पर खरे उतरने पर निर्भर हो गई है। वस्तुतः जो दार्शनिक सिद्धान्त प्रायोगिक तथ्यों के जितने ही निकटतम होंगे, वे उतने ही प्रामाणिक माने जायेंगे । वैज्ञानिक वृद्धि और प्रयोगकला के विकास के समय ऐसे बहुत से तथ्यों का पता चला जो पूर्व और पश्चिम के दर्शनों से मेल नहीं खाते थे। उदाहरणार्थ, 'चतुर्भूतमयं-जगत्' का सिद्धान्त लेवोशिये के समय में पूर्णत: असत्य सिद्ध हो गया-जब यह पता चला कि जल तत्त्व नहीं है, हाइड्रोजन और आक्सीजन का यौगिक है । वायु तत्त्व नहीं है, वह नाइट्रोजन, आक्सीजन आदि का मिश्रण है। अग्नि तत्त्व नहीं है, वह तो रासायनिक क्रियाओं में उत्पन्न ऊष्मा है । पृथ्वी भी तत्त्व नहीं है, यौगिक और मिश्रणों का विविध प्रकार का समुच्चय है। सूर्य-पृथ्वी की सापेक्ष-गति के विषय में भी पूर्व-प्रचलित मत भ्रामक सिद्ध हुआ है और अब यह माना जाता है कि पृथ्वी आदि ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं (जैनमत के अनुसार सूर्य आदि ग्रह मेरु (पृथ्वी) को प्रदक्षिणा करते हैं)। अजीव से जीव की उत्पत्ति सम्बन्धी संमूर्छन जन्मवाद भी पाश्चर के प्रयोगों से समाप्त हो गया है। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में परमाणुओं की अविभागित्व एवं अविनाशित्व सम्बन्धी मान्यतायें भी त्रुटिपूर्ण प्रमाणित हो गई। इन वैज्ञानिक तथ्यों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रयोग-प्रमाणित विचार ही समीचीनता के निदर्शक हो सकते हैं । अन्य विचारों को हमें तत्कालीन तथ्यों एवं मान्यताओं के रूप में ही स्वीकार करना होगा, समीचीन ज्ञान के रूप में नहीं । उपर्युक्त उदाहरण प्रायः भौतिक जगत् से सम्बन्धित है जो प्रयोगसिद्ध नहीं पाये गये हैं। इनसे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हमारे शास्त्रों का भौतिक जगत्-सम्बन्धी समस्त विवरण ही त्रुटिपूर्ण है । जैनदर्शन के बहुत से सिद्धान्त ऐसे हैं जो विज्ञान की कसौटी पर आज भी खरे उतर रहे हैं और संभवतः वे त्रिकालाबाधित सत्य बने रहेंगे । वस्तुतः जीवन या जगत् के दो मूलभूत पक्ष होते हैं-नैतिक और भौतिक । धर्म के भी दो पक्ष हैं-आचार और विचार । नैतिक विचारों की त्रिकालाबाधितता संभव हो सकती है, पर भौतिक तत्त्वों और आचारों में देशकालादि की अपेक्षा सदैव परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं रूपान्तरण होता रहता है । इन तत्त्वों को त्रिकालाबाधित रूप में सत्य नहीं माना जा सकता । महावीर के उपदेशों में अवक्तव्यवाद, परमाणु और उनका बन्ध, जीववाद आदि कुछ ऐसी मान्यताएँ हैं जिनसे हमें उनकी गहन चिन्तन शक्ति एवं सूक्ष्म निरीक्षणक्षमता का भान होता है। ये मान्यताएं पच्चीस सौ वर्ष बाद भी प्रयोग-सिद्ध बनी हुई हैं। इनके कारण हमें अपनी अन्य मान्यताओं को परखने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। ज्ञान और उसकी प्राप्ति के उपाय शास्त्रोक्त मान्यता के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का होता है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । आध्यात्मिक दृष्टि से तो केवल आत्मसापेक्ष ज्ञान ही प्रत्यक्ष माना जाता है । इन्द्रियों एवं मन की सहायता से होने वाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है । वस्तुतः नन्दीसूत्र में इन्द्रिय ज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना गया है जो लौकिक दृष्टि से उचित ही है। वैज्ञानिक दृष्टि से आज विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म, अर्द्धसूक्ष्म एवं अन्य सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी आदि उपकरण भी ज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो रहे हैं । चूंकि इन उपकरणों का शास्त्रों में नगण्य उल्लेख मिलता है, अतः शास्त्र-निर्माण-काल में उपकरणों के अभाव का अनुमान सहज हो जाता है। चूंकि इन्द्रियाँ तो स्थूलग्राही हैं, अत: सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान मन की सहायता से ही किया गया होगा । किसी भी ज्ञान की प्रामाणिकता उसके अविसंवादित्व, अपूर्वार्थग्राहित्व या ग्रहीतग्राहित्व आदि गुणों के PARAN 2808 NP Manomenatoma 3. Personalised www.iainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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