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________________ २२६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० जब किसी भी वस्तु के स्वरूप, भेद का विचार करते हैं तब सर्वप्रथम उसके अस्तित्व पर विचार करना आवश्यक है । कोई शरीर को, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को और कोई संघात को आत्मा समझता है । कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो इन सबसे पृथक् आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।' आत्म-विषयक मान्यता में दो प्रमुख धाराएँ चल पड़ीं। अद्वैत मार्ग में किसी समय अनात्मा की मान्यता थी और धीरे-धीरे आत्माद्वैत की मान्यता चल पड़ी । चार्वाक जैसे दार्शनिकों के मत में आत्मा का मौलिक स्थान नहीं था जबकि जैन, बौद्ध, सांख्य दर्शन में आत्मा के चेतन और अचेतन दोनों रूपों का मौलिक तत्त्वों में स्थान है। पंचाध्यायी' में कहा है कि स्वसंवेदन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है। संसार के जितने चेतन प्राणी हैं सभी अपने को सुखी, दुःखी, निर्धन आदि के रूप में अनुभव करते हैं । यह अनुभव करने का कार्य चेतन आत्मा में ही हो सकता है । QUADAM आत्मा के अस्तित्व के विषय में संशय होना स्वाभाविक है । आत्मा अमूर्त है। शास्त्रों का आलोड़न करके। भी उसे पहचानना असम्भव है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। घटपटादि पदार्थ प्रत्यक्ष में दिखलाई देते हैं उसी प्रकार आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। जो प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं, उसकी अनुमान प्रमाण से सिद्धि नहीं होती। कारण अनुमान का हेतु प्रत्यक्षगम्य होना चाहिए। धुआं और अग्नि का अविनाभावी हेतु हम प्रत्यक्ष पाकशाला में देखते हैं । अत: अन्यत्र धुएँ को देखकर स्मरण के बल पर परोक्ष-अग्नि का अनुमान द्वारा ज्ञान कर सकते हैं। परन्तु आत्मा का ऐसा कोई अविनाभावी सम्बन्ध हमें पहले कभी देखने में नहीं आया। अतः आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से नहीं है । चार्वाक तो जो दिखलाई पड़ता है उसी को मानता है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व उसे मान्य नहीं। भूत समुदाय से विज्ञानघन उत्पन्न होता है। भूतों के विलय के साथ ही वह नष्ट होता है पर-लोक नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। इसके विरोध में उपनिषद में विचार प्रस्तुत किये हैं। आत्मा को कर्ता, भोक्ता और चेतनस्वरूपी माना है। HTTARY INSTIO कहीं-कहीं पर शरीर को ही आत्मा माना है। यदि शरीर से भी भिन्न आत्मा है तो मरणोपरान्त बन्धुबांधवों के स्नेह से आकृष्ट होकर लौट क्यों नहीं आता ? इन्द्रियातीत कोई आत्मा है ही नहीं । शरीर से ही दुःख-सुख प्राप्त होते हैं । मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व कहाँ है ? शरीर ही आत्मा है। आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध है और शरीर से भिन्न है । यहाँ कहते हैं आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं। 'जीव है या नहीं ?' यह संशय चेतना का ही रूप है। चेतना और उपयोग आत्मा का स्वरूप है, शरीर का नहीं। संशय आत्मा में ही उत्पन्न हो सकता है, शरीर में नहीं । विज्ञान का प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है अतः यही आत्मा का प्रत्यक्ष है। आत्मा प्रत्यक्ष से सिद्ध होता हो तो अन्य प्रमाण की क्या आवश्यकता ? शरीर के ही विज्ञान गुण को माना तो मैंने किया, मैं कर रहा हूँ और मैं करूंगा, इसी अहंरूप ज्ञान से प्रत्यक्ष आत्मानुभूति नहीं होती ? शरीर ही मैं हूँ तो 'मेरा शरीर' इस प्रकार का शब्द प्रयोग नहीं होता । मृत्यु के बाद शरीर को नहीं कहा जाता कि अमुक शरीर मर गया परन्तु संकेत जीव की ओर रहता है । सभी लोकों में आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति है। 'मैं नहीं हैं ऐसी प्रतीति किसी को भी नहीं है-यदि आत्मा को अपना ....... १ न्यायवार्तिक : पृ० ३६६ । २ पंचाध्यायी २।५ । ३ विशेषा० : गा० १५४६ । षट्दर्शन : पृ० ८१ 'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । ५ बृहदारण्यक : २।४।१२। ६ छान्दोग्य उप०:८।१२।१; मैत्रायणी उप० : ३।६।३६ । ७ परमानन्द महाकाव्य । ३।१२४ । ८ धर्मशर्माभ्युदय : ४।६४-६५ । है तत्त्वार्थसूत्र : २/८; उपयोगो लक्षणम् । SAHEBER JamaTMEHTMMANIma ATMELINATINER
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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