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________________ प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ को देन | २११ शिशु को धारण किया है, अन्यत्र शिशु माता का हाथ पकड़ रहा है, कहीं माता उसे स्तन पान करा रही है या अन्यत्र वह माता का हाथ पकड़ कर खेलना चाहता है। इस वर्ग की मूर्तियों में प्रत्येक मातृका के सिर के पीछे प्रभा मण्डल बना है । क्या इन्हें साधारण मातृका प्रतिमाएँ समझना चाहिए ? नहीं, ये तो स्कंद सहित ६ कृत्तिकाओं के नानाविध स्वरूपों का प्रदर्शन करती हैं जिन्होंने जन्म के उपरान्त शिवपुत्र स्कंद का पालन-पोषण किया था और जिनके ही कारण उसका नाम कार्तिकेय पड़ा था। ये प्रतिमाएँ मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं और पहली बार भारतीय मूर्तिकला में 'स्कंद व कृत्तिका' अभिप्राय का अंकन प्रस्तुत करती हैं । ये सब प्रतिमाएं तनेसर के तत्कालीन 'स्कंद-मंदिर' में पूजार्थ रक्सी गई होंगी। इनसे स्कंद के साथ-साथ कृत्तिका मातृकाओं का स्वतंत्र पूजन एवं प्रतिमा निर्माण सिद्ध हो जाता है । इस दृष्टि से भी मेवाड़ की ये मूर्तियां अति विलक्षण हैं । उदयपुर नगर के पास 'बदला' ग्राम के बाहर एक आधुनिक मंदिर के अन्दर की 'हरिहर' प्रतिमा भी विवेच्य है । यह लगभग ४ फुट ऊँची होकर गुप्तोत्तरयुगीन कला में विष्णु व शिव के एक रूप की अभिव्यक्ति करती है । राजस्थान की अद्यावधि ज्ञात हरिहर पूर्तियों की श्र ेणी में प्राचीनतम होनी चाहिए। यह भी पारेवा पत्थर की बनी है । शिव की बाईं ओर का अर्धभाग विष्णु का सूचक है जहाँ उन्होंने ऊपर के हाथ में चक्र को प्रयोग मुद्रा में धारण कर रक्खा है और नीचे के हाथ में शंख; शिवभाग में पुरुषाकार त्रिशूल ऊपरी दाहिने हाथ में विद्यमान है। सिर के आधे भाग में विष्णु का किरीट मुकुट व दूसरी ओर चन्द्रमौलि लांछन सहित जटाजूट भी प्रतिमा के सौष्ठव में वृद्धि कर रहे हैं । तनेसर से प्राप्त एक मातृका प्रतिमा अभी राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली, हेतु प्राप्त हुई है - यह राजस्थान शासन से भेंट-स्वरूप मिली है - यहाँ देवी कुछ झुकी मुद्रा में दिखाई देती है और भारतीय शिल्प-कला की असाधारण कृति है। वित्तौड़ क्षेत्र में पूर्वमध्ययुगीन कला के स्वरूप वित्तौड़ दुर्गस्थ कुम्भस्याम मंदिर व कालिका मंदिर विशेष रूपेण उल्लेखनीय हैं । कुम्भश्याम मंदिर का बाहरी जंघा भाग दवीं शती का है-पीछे प्रधान ताक में नीचे शिव-पार्वतीविवाह प्रतिमा जड़ी है व बाईं ओर जंघाभाग पर स्थानक एवं जटाधारी द्विबाहु लकुलीश । इस आशय की लकुलीश मूर्तियां अत्यल्प संख्या में मिली हैं, जहां उन्हें खड़े दिखाया गया हो । चित्तौड़ दुर्ग की अन्य शिव-प्रतिमा में भी यही माव झलकता है, परन्तु वहाँ बिलकुलीश के एक साथ में परशु भी है और जंषा पर सिबमें प्रदर्शित है। चित्तौड़ का कालिका मंदिर प्रारंभ में (अर्थात् मूलतः ) सूर्यमंदिर था जिसके निजगर्भ-गृह-द्वार- ललाट-बिम्ब पर आसनस्थ सूर्य - प्रतिमा जड़ी है और तथैव बाहरी ताकों में गर्म के चारों ओर प्रदक्षिणापथ की व्यवस्था की गई है और गर्भगृह जंपा -भाग पर दिक्पाल प्रतिमाएं जड़ी हैं । यहाँ पूर्वपरम्परानुसार सोम ( चंद्र ) की प्रतिमा भव्य है । इसके सिर के पीछे अर्धचन्द्राकृति खुदी है । यह राजस्थान की मूर्तिकला में प्राचीनतम चन्द्र- प्रतिमा स्वीकार की जा सकती है। इसके पास 'अश्वमुख अश्विन' प्रतिमा जड़ी है और इसी प्रकार दूसरी ओर भी अन्य 'अश्विन' की । इस मंदिर के बाहर 'अश्विनी कुमारों' व 'चन्द्र' की ये शिल्पाकृतियां प्रतिविज्ञान की महत्वपूर्ण तिथियां हैं। इस सूर्य मंदिर के प्रदक्षिणा से बाहर मी बाह्य जंघा की व्यवस्था की गई है जहां क्रमशः नानाविध प्रतिमाएं मूलतः जड़ी गई थीं। इनमें बाई ओर मध्यवर्ती प्रतिमा समुद्रमंथन-भाव की अभिव्यक्ति करते हुए विष्णु के कच्छपावतार का भी प्रदर्शन कर रही है। यहां कच्छप की पीठ पर मथानी रखकर मन्थन क्रिया सम्पन्न की जा रही है। इस सूर्य मंदिर के बाहर एक विशाल कुण्ड के बीच बना लघु मंदिर देवी भवन था और सम्भवतः पत्रीं शती में बनाया गया था । 1 भीलवाड़ा जिले में मेनाल (महानाल का मध्ययुगीन महानालेश्वर नामक शिवालय तो चाहमान कला का महत्त्वपूर्ण स्मारक है और पास ही १२वीं शती का तत्कालीन शैवमठ, जिसकी दीवार पर संवत् १२२५ का शिलालेख खुदा है । मठ के स्तम्भों पर घटपल्लव अभिप्राय अंकित हैं। निजमंदिर में प्रवेश करने से पहले एक पंक्ति में तीन लघु देवकुलिकाएं पूर्व मध्ययुगीन प्रतीत होती हैं वे चित्तौड़ के सूर्य मंदिर व ओसियां के प्रतिहार कालीन स्थापत्य व शिल्प . से सम्बन्धित हैं। मेनाल की इन दो देवकुलिकाओं के पार्श्व भाग में नटराज शिव की मूर्तियां जड़ी हैं और अंतिम देवकुलिका के बाहर अर्धनारीश्वर शिव की । इसी युग की जैन कला की एक भव्य कुबेर प्रतिमा भीण्डर क्षेत्र के 'बांसी' नामक स्थान पर मिली थी और आजकल 'प्रताप संग्रहालय' उदयपुर में सुरक्षित है। भारतीय शिल्प कला की यह अलौकिक सुन्दर एवं सुघड़ मूर्ति है—पारेवा पत्थर की इस प्रतिमा में वाहन सहित आसनस्थ धनपति कुबेर के एक हाथ में 'कुक' (रुपये की बनी है और दूसरे में विजोरा फल कुबेर के सिर पर जिन तीर्थंकर की लघुमूर्ति खुदी है और 000000000000 pohts 000000000000 941400000
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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