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________________ oooooooooo00 000000000000 40001 ain Education Internatio भारत की स्थापत्य एवं शिल्पकला के क्षेत्र में मेवाड़ ने योगदान ही नहीं, किन्तु मूर्तिकला के शिल्पकला को नई दृष्टि और दिशा भी दी है। विद्वान लेखक ने विस्तार से मेवाड़ के मूर्तिशिल्प पर प्रकाश डाला है । [ डा० रत्नचन्द्र अग्रवाल [निर्देशक - पुरातत्व संग्रहालय विभाग राजस्थान, जयपुर] प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन Q पिछले १५-२० वर्षों की शोध, खोज एवं पुरातात्त्विक खनन द्वारा मेवाड़ के प्राचीन इतिहास, कला एवं संस्कृति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ा है। उदयपुर-चित्तौड़ व मीलवाड़ा क्षेत्र में प्राचीन 'प्रस्तर युग' के नानाविध उपकरण प्राप्त हुए हैं जिनसे यह सिद्ध हो चुका है कि इस भूमितल पर आदि मानव आज से १ लाख वर्ष पूर्व सक्रिय था, वह पत्थर के हथियार बनाकर जीवन व्यतीत करता था, यद्यपि उस समय तक मूर्ति या मृत्भाण्ड कला का आविष्कार नहीं हुआ था। इस प्रसंग में पुरातत्त्ववेत्ता उस समय के आदि मानव के अवशेष ढूंढ़ने में लगे हैं । इस समय के विविधानेक प्रस्तरास्त्र हमें चित्तौड़ की गम्भीरी नदी के किनारे से प्राप्त हो सकते हैं व अन्य कई स्थानों पर भी । अभी हाल में भीलवाड़ा जिले में 'बागोर' की खुदाई द्वारा बाद के युग की सामग्री प्रकाश में आयी है जिसका सविशेष अध्ययन किया जा रहा है । सन् १९५५-५६ में मुझे उदयपुर नगर के पास एवं प्राचीन आघाटपुर ( वर्तमान आयड़ या आहाड़) की खुदाई करने का सुअवसर मिला था, जिसके लिए मैं राजस्थान- शासन का आभारी हूँ । इस धूलकोट नामक टीले को लोग ‘ताँबावती' नगरी के नाम से पुकारते हैं जिसकी पुष्टि खुदाई द्वारा भलीभांति सम्पन्न हुई है । यहाँ सबसे नीचे का धरातल लगभग ४ हजार वर्ष पुराना है और सिन्धु सभ्यता के बाद की सामग्री प्रस्तुत करता है। मेवाड़ में सिन्धुसभ्यता के उपकरणों का प्रभाव इस समय पड़ा जिसके परिणामस्वरूप यहाँ आयड़ की मृद्भाण्डकला में 'डिश ऑन स्टैन्ड' (Dish on stand) संज्ञक पात्र विशेषों का अनुकरण स्थानिक मृद्भाण्डकला में सम्पन्न हुआ। साथ ही ईरानी कला के प्रभाव की द्योतक सामग्री भी मिली जिसमें सफेद धरातल पर काले मांडने वाले कुछ मिट्टी के बर्तन के टुकड़े भी हैं जो 'सिआल्क' (Sialk) की कला से साम्य रखते हैं । आयड़ के इस धरातल विशेष का काल-निर्णय तो 'कार्बन १४' विश्लेषण के आधार पर लगभग ईसा पूर्व १५०० वर्ष सिद्ध हुआ है। इस समय यहाँ 'लाल और काली धरातल' के मृद्माण्डों का प्रयोग होता था जिन पर श्वेत रंग के नानाविध मांडने बने हुए हैं - यह यहाँ की कला विशेष थी और कई सौ वर्ष तक यहाँ पनपी । कालान्तर में इस सभ्यता विशेष का आहड़ की नदी - बेड़च - बनास व चम्बल नदियों से सुलभ साधनों द्वारा उत्तर की ओर प्रसार हुआ । भारतीय पुरातत्त्वविदों ने अब इसे सिन्धुसभ्यता की तरह एक पृथक् सभ्यता मान कर इसको "आयड़ सभ्यता" का नाम भी प्रदान कर दिया है । इसके अन्य स्थल 'गिलूण्ड' (रेलमगरा में भगवानपुरा के समीप) नामक खेड़े की खुदाई भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने कराई थी। यहां के एक मृद्भाण्ड पर मांडी गई पुरुषाकृति बहुत महत्त्वपूर्ण है यद्यपि इस प्रकार की सामग्री आयड़ से नहीं मिली है। आयड़ की मिट्टी के मणके तो 'अनौए' व 'ट्रोए' की कला से साम्य रखते हैं और उस समय मेवाड़ व विदेशों के पारस्परिक सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश FAK
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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