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________________ मेवाड़ का प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत साहित्य | २०३ 000000000000 ०००००००००००० . कथा है। यह एक रोमांचक काव्य है। इसमें काव्यात्मक वर्णनों की भी कमी नहीं है।' सुभाषित एवं लोकोत्तियों का भी प्रयोग हुआ है । यथा--"कि घिउ होइ विरोलए पाणिए।" -(भ. क. २, ७, ८) विमलकीर्ति एवं सोखवइविहाणकहा विमलकीति को रामकीर्ति का शिष्य कहा गया है । जयकीति के शिष्य रामकीति ने वि. सं. १२०७ में चित्तौड़ में एक प्रशस्ति लिखी है। अतः विमलकीर्ति का सम्बन्ध भी चित्तौड़ से बना रहा होगा। विमलकीति की एक ही रचना 'सोखवईबिहाणकहा' उपलब्ध है। इसमें व्रत के विधानों का फल निरूपित है। जिनदत्त एवं अपभ्रंशकाव्यत्रयी जिनदत्तसूरि ने चित्तौड़ में अपने गुरु जिनवल्लभसूरि की गद्दी सम्हाली थी। इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान के कई भागों में था। मेवाड़ के साहित्यकार इन जिनदत्तसूरि की अपभ्रंश की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-(१) उपदेशरसायनरास, (२) कालस्वरूप कुलक और (३) चर्चरी । ये तीनों रचनाएँ अपभ्रंश काव्यत्रयी के नाम से प्रकाशित हैं। 'उपदेशरसायनरास' ८० पद्यों की रचना है । मंगलाचरण के उपरान्त इसमें संसार-सागर से पार होने के लिए सद्गुरु की आवश्यकता प्रतिपादित की गयी है। अन्त में गृहस्थों के लिए भी सदुपदेश हैं। धर्म में अडिग रहते हुए यदि कोई व्यक्ति धर्म में विधात करने वाले को युद्ध में मार भी देता है तो उसका धर्म नष्ट नहीं होता। वह परमपद को प्राप्त करता है। धम्मिउ धम्मुकज्जु साहतउ, परु मारइ की वइ जज्झतउ । तु वि तसु धम्मु अत्थि न हु नासइ, परमपइ निवसइ सो सासइ ।। -(उप. २६) 'कालस्वरूप कुलक' में जिनदत्तसूरि ने धर्म के प्रति आदर करने और अच्छे गुरु तथा बुरे गुरु की पहचान करने को कहा है। गृहस्थों को सदाचार में प्रवृत्त करना ही कवि का उद्देश्य है । जिनदत्तसूरि ने अपनी तीसरी रचना 'चर्चरी' की रचना व्याघ्रपुर नगर (वागड़ प्रदेश) में की थी। इसमें ४७ पद्यों द्वारा उन्होंने अपने गुरु जिनवल्लमसूरि का गुणगान तथा चैत्य-विधियों का विधान किया है। संस्कृत-साहित्य मेवाड़ प्रदेश में संस्कृत साहित्य का लेखन गुप्तकाल में ही प्रारम्भ हो गया था। मंवर माता का शिलालेख वि. सं. ५४७ का है, जो संस्कृत में काव्यमय भाषा में लिखा गया है । इसके बाद संस्कृत की कई प्रशस्तियाँ मेवाड़ में लिखी गयी हैं, जो ऐतिहासिक और काव्यात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, किन्तु स्वतन्त्र रूप से संस्कृत में काव्य ग्रन्थ यहां मध्ययुग में ही लिखे गये हैं। राजाओं के आश्रय में रहने वाले कवियों ने विभिन्न विषयों पर खण्डकाव्य व मुक्तककाव्य लिखे हैं । प्राकृत की भांति संस्कृत में भी मेवाड़ में सर्वप्रथम ग्रन्थ-रचना करने वाले आचार्य सिद्धसेन हैं। इनके बाद अनेक जैन आचार्यों ने यहाँ संस्कृत के ग्रन्थ लिखे हैं, जिन्हें जैन संस्कृत काव्य के नाम से जाना जाता है। किन्तु केवल तीर्थकर की स्तुति कर देने अथवा श्रावक व साधु के आचरण का विधान करने से कोई काव्य ग्रन्थ जैन काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार का विभाजन करना ही गलत है। मेवाड़ के संस्कृत साहित्य के इतिहास में इन जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत काव्य उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने अन्य कवियों के । यहाँ जैन परम्परा के पोषक केवल उन प्रमुख कवियों के संस्कृत ग्रन्थों का मूल्यांकन प्रस्तुत है, जिनका मेवाड़ से कोई न कोई सम्बन्ध बना रहा है। १. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार, 'भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य' २. शास्त्री, नेमिचन्द्र, ती. म. एवं उनकी आ. प., भाग ४, पृ० २०६ ३. कोछड़, हरिवंश, 'अपभ्रंशसाहित्य', पृ० ३६१ ४. दृष्टव्य-पुरोहित चन्द्रशेखर, 'मेवाड़ का संस्कृत साहित्य का योगदान' (थीसिस), १९६६ - Jan Education international :S.BLEtc www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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