SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घोर तपस्वी पूज्यश्री रोड़जी स्वामी | १२७ ०००००००००००० ०००००००००००० साधना संयम की पावन भूमिका को प्राप्त कर श्री रोड़जी स्वामी को स्वयं अपने को ही पावन नहीं कर दिया अपितु संयम की सर्वोत्कृष्टता को भी मूर्तरूप प्रदान कर दिया। नितान्त तितिक्षावृत्ति में विचरने वाले श्री रोड़जी स्वामी बड़े परिषहजयी तथा धीर मुनिराज थे। पूज्य श्री नृसिंहदासजी महाराज कृत 'श्री रोड़जी स्वामी रा गुण' तपस्वीजी का जीवन परिचय देने वाली एक सशक्त और प्राचीन रचना है। उसके अनुसार ज्ञात होता है कि श्री रोडजी स्वामी सचमुच बड़े कष्ट-सहिष्णु थे। उनकी धीरोदात्त साधना के विषय में सुनते-सोचते ही एक आश्चर्य का अनुभव होने लगता है। सर्दी में वे केवल एक चादर रखते थे। यदि सर्दी कुछ अधिक हो जाती तो वे उस चादर को भी दूर रखकर ध्यान कर लेते। गर्मी में तपीस्वीजी किसी गर्म शिला पर सूर्य को सामने रख दोनों बाहुओं को लम्बी कर आतापना लेते हुए ध्यान किया करते। भयंकर से भयंकर विपरीत परिस्थितियों में भी स्वामीजी अविचल संयम-पथ पर दृढ़तापूर्वक चलते रहे । भयंकर विघ्नों के राहु भी उनके संयम चन्द्र को ग्रस नहीं सके। उनमें सांयमिक शैथिल्य नहीं आ पाया, यह उनकी सतत जागरूकता का प्रमाण है। नृसिंहदासजी महाराज कहते हैं कि पंच महावत पालताजी खम्या करी भरपूर । बावीस परीषह जीतिया जी दोष टाल्या बियालीस पूर ।। आत्म-गवेषणा की इतनी उन्नत दशा में रमकर रहने वाले श्री रोड़जी स्वामी की साधना का परिचय कुछ शब्दों या पंक्तियों में आ सके यह सम्भव नहीं। तात्कालिक परिस्थितियाँ श्री रोड़जी स्वामी ने जब १८२४ में दीक्षा ग्रहण की तब मेवाड़ में साधुमार्गी बावीस सम्प्रदाय का प्रभाव व्यापक रूप से फैल चुका था। यतिवाद, जो कई वर्षों से जमा था, पूर्वाचार्य श्री पृथ्वीराजजी महाराज, श्री दुर्गादास जी, श्री रामचन्द्रजी महाराज श्री नारायणजी स्वामी आदि के त्याग, तप और उत्कृष्ट संयम से मूल से उखड़ चुका था। यतिवर्ग केवल उपाश्रय और मन्दिरों तक सीमित था । आम जनता जड़ पूजा के आग्रहों से मुक्त हो चुकी थी। चारों तरफ मुनियों के त्याग-तप का प्रभाव था। चैतन्योपासना, स्वरूप-साधना, सामायिक व्रत, नियम, पौषध स्वाध्याय आदि धर्म क्रियाएँ उत्थान पर थीं। दयाधर्म का चारों तरफ डंका बज रहा था। ऐसे वातावरण में एक विक्षेप भी प्रगति पा रहा था। केलवा और राजनगर से आचार्य श्री रघुनाथजी के शिष्य श्री भीषणजी के द्वारा जो श्रद्धा-भेद प्रारम्भ हुआ वह धीरे-धीरे बढ़ रहा था। जैन धर्म में दया दान का बड़ा महत्त्व है। कष्ट-पीड़ित किसी भी प्राणी को कष्ट-मुक्त करना, मृत्यु के मुंह में पहुंचे किसी तड़पते बेसहारे पड़े प्राणी को किसी उपक्रम से बचा लेने की भावना आना और बचा लेना दया है, जो धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी तरह अभावग्रस्त किसी प्राणी को देय वस्तु समर्पित करना अनुकम्पा दान के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। १. सियाले एक पछेवड़ी जी, ध्यान धरे महाराय । थोड़ो सी अधको पड़े तो, वींने भी देवे टाल ॥ २. जेठ तपे रवि आकरो जी, धूप पड़े असराल । स्वामी लेवे आतापना जी, वे तो कर कर लम्बी बाँय ।। AMERA .. ... -..:58Raaame
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy