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________________ 200 ६ मैं चर्चा चक्रवर्ती श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., साहित्य भूषण श्रीमद्विजय भुपेन्द्रसुरीश्वरजी म.सा. हुए है। इसी परम्परा को सब से अधिक योगदान चतुर्थ पट्टधर श्री व्याख्यान वाचस्पति श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का रहा है जिन्होंने इस समाज की नींव को मजबुत किया है। साथ ही उन्होने अन्तेवासी शिष्यों को विद्वान बनाकर इस परंपरा को जीवित रखा है। । आपके शिष्यरत्न पंचम पट्टधर कविहृदय श्रीमद्विजय वियाचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने इस समाज के चहुंमुखी विकास में योगदान दिया है। समाज को उन्नत व प्रगति के पथ पर गतिमान किया है। पूज्य आचार्यदेव श्री के महाप्रयाण होते ही श्रमण संघ और समाज विकट स्थिति में आ गया था परन्तु संवत् २०४० माघ शुक्ला ९ को तात्कालिन पूज्य श्री हेमेन्द्रविजयजी म.सा. को श्रमण संघीय आचार मर्यादा के निर्णय को सर्व मान्य कर गच्छाधिपति के रूप में पूज्य आचार्यदेव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को गुरु पाट गादी नगर आहोर में आचार्यपद प्रदान किया। आज वे अपनी तप पुत: साधना के आलोक से अज्ञान अंधकार को नष्ट कर सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं। यशस्वी आचार्य परम्परा के साथ ही पूजनीय श्रमण भगवन्तों का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है। प. पूज्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के अंतिम शिष्यरत्न आगम दिवाकर संस्कृत साहित्यरत्न पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी म.सी. "शीतल" विलक्षण प्रतिभा के धनी एवं यशस्वी श्रमण सूर्य के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। उन्होने त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम दक्षिण भारत की धर्म यात्रा अपने दो योग्य शिष्यों-मुनिश्री लेवेन्द्रशेखरविजयजी म एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म. को साथ लेकर वि.सं. २०३५ से २०३९ तक चार वर्षो में उन्होने दक्षिण भारत में अनेक शहर, नगर और गावों में अपने गुरुगच्छ की कीर्ति पताका लहराई। दीक्षा पर्याय के ३० वर्षों तक वे इस समाज की निरन्तर निष्काम सेवा प्रदान करते रहे है। त्रिस्तुतिक श्रमण परम्परा में उनकी जिनशासन सेवा एक कीर्तिमान है। यह भी एक गौरव पूर्ण कीर्तिमान है कि आज उनकी पुण्य स्मृति में राजस्थान के जालोर जिलान्तर्गत भागली प्याऊ पर भी मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन महातीर्थ गुरुलक्ष्मण धाम एवं महान् अतिशयवंत तीर्थ श्री शंखेश्वर में श्री पार्श्वपद्मावती शक्ति पीठ, गुरु लक्ष्मण ध्यान केन्द्र के नाम से स्थापित किये गये है जो इस परम्परा में गुरु स्मृति के रूप में प्रथम एवं सराहनीय कदम है। पूज्य शीतलजी म.सा. के सद्प्रयत्नों से अपने सुविनीत शिष्य द्वय को ज्ञान-ध्यान और साधना द्वारा सर्वांगीण विकसित किया है। वि.सं. २०४१ से अस्खलित रूप से, तेजस्वी कार्य शक्ति से समाज में अन्वरत धर्म की प्रभावना कर रहे है। उनकी यह देन चिरकाल तक चिरस्मरणिय रहेगी। प. पूज्य परमश्रध्देय पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. ने इस समाज 福 MOR सत्य सदैव सत्य ही रहता हैं। कर्म के आवरण से सत्य धुंधला जाता है किंतु जैसे ही आवरण दूर होता है सत्य सूर्य से अधिक तेजोदीत हो उठता है। Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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