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________________ नवलाजी परिवार की ओर से शानदार सामैया किया गया और गहुँली की गई। पूज्य मुनिद्वय व साध्वी मंडल मंथर गतिसे आगे बढे। श्रावक श्राविकाओं के झुण्ड के झुण्ड आकर स्वागत में शामिल हुए, अत्यन्त हर्षोल्लास के वातावरण में नगर प्रवेश के अवसर पर कर्जत, नेरल, लोनावाला, आकुर्डी, खापोली, मोहना, इन्दापुर, अम्बरनाथ, बम्बई, आदि नगरों से भी श्रध्दालू श्रावक पधारे थे। "त्रिशलानन्दन वीर की, जय बोलो महावीर की' तथा वंदे वीरम के नारों से आकाश गुंजायमान हो उठा। चल समारोह के साथ नगर भ्रमण हुआ जिन मंदिर में दर्शन वन्दन किये। और यह चल समारोह चातुर्मास स्थल प्रताप हाल पहुँचा। प्रताप हाल में कार्यक्रम सुबह ११ बजे प्रारंभ हुआ। पूज्य मुनि भगवन्त श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजीने धीर गंभीर किन्तु मृदु मधुरवाणी में प्रवचन प्रारंभ किया। उन्होने कहा- "अनन्तानन्त उपकारी भगवन्त महाश्रमण भगवान महावीर की अजर अमरवाणी आज भी हमें जीवन्त प्रेरणा प्रदान कर रही है। जैन श्रमण संघ में वर्षा वास या वर्षा ऋतु को समस्त ऋतुओं में महत्वपूर्ण माना गया है। क्योकिं सतत् ४ माह एक ही स्थान पर साधु साध्वियों के सानिध्यता में श्रावक श्राविकाओं के अन्तमन की परिशुध्दि मुनि भगवन्तो के उपदेश प्रवचन से होती है। उनके मन निर्मल, पवित्र, सरल, निश्चल हो जाते है। इसलिये हमारी समस्त धार्मिक क्रियाओं के पूर्व अन्तरतम् में फँसे अज्ञान, इर्ष्या, द्वेष आदि को दूर कर मन को स्वच्छ उर्वर बनाने का विधान है। यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। सामायिक हो या तपस्या किसी में भी अहं का पोषण और धन का प्रदर्शन करने से बचना चाहिये।" गुरुदेव के सानिध्य का महत्व श्रावक श्राविकाओं के लिये कितना है। प्रवचन समाप्त होने पर उस विषय पर चर्चा होना स्वाभाविक था। एक श्रोता ने कहा- "घर बैठे आई गंगा का लाभ लेना तो हम पर निर्भर होता है। नदी किनारे बैठा कोई व्यक्ति प्यासा रह जाय तो नदी का इसमें क्या दोष?" कल्याण चातुर्मास का आयोजन शा श्री प्रतापचन्दजी नवलाजी श्रीश्रीमाल परिवार की ओर से किया गया। विविध कार्यक्रमों और तपस्याओं के साथ चातुर्मास प्रारंभ हुआ। श्रावण वदी ९-१०-११ को भगवान श्री पार्श्वनाथ की अठ्ठम तपाराधना प्रारंभ हुई इसमें अनेक आराधकोंने भाग लिया। उस आराधना का संपूर्ण आयोजन शा. प्रतापजी नवलाजी परिवार की ओर से ही किया गया। पू. मुनिवरश्री लोकेन्द्रविजयजी ने अपने प्रवचन में बताया कि, "यदि हम आपसी मतभेद भूलाकर, इर्ष्या, द्वेष युक्त निहित स्वार्थवाले मनोभावो को तिलांजली देकर धर्म के प्रति तन-मन-धन से, पूर्ण निष्ठा भाव से युक्त होकर आत्मीय समर्पण भाव से आराधना करे तो, निश्चय ही आत्मोन्नति होती है। मन में दया, करुणा के भाव पैदा होते है।" सभी तपस्वीयों की आराधनाए सानन्द सम्पन्न हुई। देव गुरु और धर्म की असीम अनुकम्पा से किसी तरह का कोई विघ्न या बाधा नहीं आई। श्रावण सुद ७ बुधवार दिनांक ९ अगस्त १९८९ को कल्याण नगर में पू. मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी की पावन निश्रा में धर्मानुरागी जुहारमलजी छोगमलजी श्रीश्रीमाल की ओर से श्री नवकार महामंत्र की आराधना में १६५ आराधको ने सोत्साह भाग लिया। तप की भट्टी में काया को तपाकर कुन्दन बनाना ही तपस्या का सर्वश्रेष्ठ और अनिर्वचनीय अनुष्ठान आनन्द तन-मन और प्राण की एकाग्रता से जो साधक साधना करता है उसे जगत में कोई वस्तु अप्राप्य वस्तु नहीं हैं। ९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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