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________________ रुप में मनाए जाने वाली थी। १३ मार्च को श्रीरंग विजयजी "जैन भिक्षुक" की पूण्यतिथि थी उनके प्रति भावांजली अर्पित की गई। कर्जत जैन मंदिर के निर्माण के लिए उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक उसके लिए अथक परिश्रम किया । ३१ मार्च को कर्जत में ही श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन का कार्यक्रम कर्जत निवासी शा. ताराचन्दजी फुलाजी श्रीमाल परिवारवालो की ओर से आयोजित किया गया था । पू. मुनिवर श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म.सा. द्वारा महाराष्ट्र प्रदेश में यह दूसरी महापूजन थी। कर्जत निवासियों और बाहर गांव से पधारे भक्तजनो ने पूजन का पुण्य लाभ प्राप्त किया । १ अप्रेल १९८९ आज श्रमण सूर्य पू. मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी " शीतल" म.सा. की पांचवी पूण्यतिथि हैं। और साथ ही एक विशेष कार्यक्रम भी था। साध्वी श्री हेमप्रभाश्रीजी के पांचसौ आयंबिल का पारणा। पारणा कराने का लाभ शा. श्री प्रेमचन्द गुलाबचंदजी श्रीमाल परिवारवालो ने लिया । सुबह पारणा कार्यक्रम के पश्चात पुण्यस्मृति दिवस का कार्यक्रम शुरु हुआ । मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजीने अपने उपकारी गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी " शीतल" म.सा. के जीवन वृतांत को भावभीने शब्दो में उपस्थित जन समुदाय को बताया और कहा " मेरे गुरुदेव पू. मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी " शीतल" म.सा. ने जिन शासन और गुरु गच्छ की जो अभूतपूर्व सेवा की वह जिन शासन के इतिहास में स्वर्णाक्षरो में लिखी जायेगी।" मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजीने भी अपने गुरुदेव का पूण्यआत्मीय स्मरण कर संक्षेप में उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगो की चर्चा की। लोगो ने उन प्रसंगो को दतचित होकर सुना । मुनिराज श्री लोकेन्द्र विजयजी ने कहा "पुज्य गुरुदेव श्री लक्ष्मणविजयजी म.सा. का जन्म आलीराजपुर (जिला झाबुआ मध्य प्रदेश) में वि. संवत् १९९३ में हुआ था । १६ वर्ष की अल्पायु मे ही श्री मोहन खेड़ा तीर्थ की पवित्र भूमि पर पूज्य आचार्यदेव श्री मद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की छत्रछाया में संयम जीवन स्वीकार किया पूज्य आचार्यदेवने उन्हे मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतल" के नाम से सम्बोधित किया। अपने गुरुवर की निश्रा में रहते हुए उन्होने संस्कृत, प्राकृत, मागधी, आदि भाषाओं और साहित्य के अध्ययन के साथ साथ जैनागम सूत्रों का गहन अध्ययन किया, उन्होने कठिन से कठीन साधनाए की मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजीने गुरुदेव द्वारा की हुई जिन शासन की व गुरुगच्छ की सेवाओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा “गुरुदेव ने ३० वर्ष तक जिनशासन की व गुरुगच्छीय मर्यादा का पालन करते हुए अनवरत् सेवा की। और त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम बार दक्षिण प्रदेश की यात्रा कर गुरुगच्छीय शोभा बढ़ाने का श्रेय प्राप्त किया। और उसके बाद तीर्थाधिराज शत्रुंजय तीर्थ में अन्तिम चातुर्मास करकें चैत्र वद १० संवत् २०४० को अहमदाबाद में महाप्रभाविक उवसग्ग हर का श्रवण कर एवं प्रभु पार्श्वनाथजी का पूण्य स्मरण करके महाप्रयाण कर गये। उनका मार्गदर्शन और प्रेरणा हमें अदृश्य रूप से आज भी मिल रही है । " मुनिराज श्री लोकेन्द्रविजयजी के शब्द में ऐसी अपूर्व आत्मयिता थी ऐसा कारुण्य था, कि उपस्थित जन समूह की आँखे भर आई। अहमदाबाद में मुनिराजश्री अपने गुरुदेव के साथ अंतिम समय तक थे। प्रत्यक्षदर्शी मुनिराज के शब्दो में महाप्रयाण की घटना का वर्णन सूनकर श्रोताओं का हृदय भर आना सहज स्वाभाविक था । Jain Education International आस-पास के संसार को भूले बिना, तन्मयता मिलती ही नहीं और तनम्यता बिना कोई सिद्धि भी प्राप्त नहीं कर सकता । - For Private Personal Use Only ८३ www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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