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________________ 'जिनालंकार' - एक प्राचीन स्तोत्रकाव्य लेखक : प्रा: श्याम जोशी, वाई जि:- सातारा (महाराष्ट्र) 'जिनालंकार' नामक एक प्राचीन काव्य का परिचय यहां दिया जा रहा है। लेकिन इधर 'जिन' शब्द का व्युत्पत्यर्थ याने 'इंद्रियोंपर विजय पानेवाला' ऐसा ही लेना है। क्योंकी इस काव्य का विषय है गौतम बुद्ध और भाषा है पालि। वैसे तो भगवान महावीर की उपाधी 'जिन' ऐसी रुढ है। और अनेक धर्मियोंने और सांप्रदायिकोने इस उपाधी का उपयोग वही और सही अर्थमे अपने अपने ग्रंथोंमे किया है। जैन धर्मने भी 'जिन' होने की ही महत्वाकांक्षा और आदर्श रखा और अनेक सांप्रदायिकों को इस वजह से अपना लिया है। इंद्रियोंपर विजय पाना यही श्रमण संस्कृती का साध्यसाधन बना रहा है। चाहे उस संस्कृती को अनेक संप्रदाय अपनी अपनी तरह से आत्मसात कर लें। त्रिपिटकों को छोडकर बौद्धोंका अट्टकथा नामक एक वाङमय प्रकार है। इसी प्रकार मे गिना गया "जिनालंकार" यह एक काव्य ब्राह्मी परंपराके अनुसार एक अट्टकथा है। एक समयमे ब्रह्मदेशके प्रमुख मठोंमे इसका अभ्यास और पाठ होता था ग्रंथ के अंतमे इस काव्यकर्ताका उल्लेख बुद्धरख्खित ऐसा दिया है। वह श्रीलंकामे जन्मा हुआ (इ.स. पूर्व ४२६मे) एक विद्वान था। तम्बमणीके बौद्धभिक्षु परिषद का वह अध्यक्ष था। काव्य के टीकाके अनुसार 'जिनालंकार' नामक खजिना धारण करनेवाला 'भण्डारिक' था। इस खजिना या भण्डार का सारांश ऐसा है: शुरुमे मंगलाचरण जैसी प्रणाम दोपनी गाथा लिखने के बाद कवी बुद्धकृतीका शुद्धत्व कहकर उसका अनन्य साधारणत्व कहता है। बुद्धकी महत्वाकांक्षा कहते समय सुमेधने दीपंकरके सामने देहका पूल कैसा बनाया इसका वर्णन, आता है। बादमे बुद्ध माताके गर्भमे प्रवेश करता है। उसका जन्मोत्सव मनाने के लिये देव, नाग, असुर इत्यादी सर्व विश्व सम्मीलित हो जाता है। यशोधराके साथ राजैश्वर्यसंपन्न युद्ध का विवाह और पुत्रप्राप्ती होने के बाद गौतमके मनमे वैराग्य और जनमोक्ष के विचार आते हैं। इसलिये सर्वसंग परित्याग करके वह निर्वाणके मार्ग पर चल पडता है। इस वख्त कवीने अपना काव्यरचना कौशल्य दिखाने के लिये विविध यमक गाथा और पहेली गाथा दी हैं। प्रवासका सविस्तर वर्णन होने के बाद गौतम और मार का बोधिवृक्षतले युद्ध होता है और मारका पराजय वर्णित किया है। उनका संवाद बड़ा रोचक है। इस विजयके बाद बुद्ध को ज्ञानप्राप्ती हो जाती है और देवादिक सिद्धार्थ के ऊपर छत्रचादर धरते हैं। इसि पतन वनमे ब्रह्मके विनंती पर वह धर्मचक्र परिवर्तन करता है। उसके बाद युद्धका गुणगान व पूजाविधान आता है। इस समय वर्णित निसर्गसंपत्ती लक्षणीय है। अन्तमे स्वयं अनागत कालमे 'जिन' होने की इच्छा प्रकट की है। मूलत: तीनसौ श्लोक की इस रचनाके अढाईसौ श्लोक उपलब्ध हैं। उनके ऊपर की टीका प्रसिद्ध टीकाकार युद्धघोष के समकालील बुद्ध दत्तकी है। स्वयं कवीने भी इस काव्यपर टीका लिखी होगी। अर्थात् बुद्धदत्तके कारणही वर्तमान ग्रंथ सुरक्षित रहा है। श्रीलंकामे रहते हो और मगधको वापस आनेसे पूर्व उसने 'जिनालंकार की नकल उतारी और उसके ऊपर टीका भी लिखी।। इस काव्यमे उपयोजित वृत्त लेखकका वृत्तोंपर का प्रभाव सूचित करते हैं। 'पथ्यावत्त के ३६४ मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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