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________________ इससे तात्पर्य यह निकलता है कि, पुण्य कर्म करनेवाले ग्वाले को पाप का साझीदार होना पडा और पाप कर्म करनेवाले गुंडेके पल्ले पुण्य पडा। इससे यह बात सिद्ध होती है कि हम कुछ नही है; हम पाप-पुण्य कुछ नही जानते। हम तो केवल भगवान के हाथ की कठपुतलियाँ है। भगवान के मन में जब भी कोई चिज करनी होती है वह हमसे करवाता है। समाजका हर मनुष्य कर्म करता रहता है, वह उसके पूर्व जन्म के अनुसार या उसके कर्म के नतीजे के अनुसार करता है। इस लिये उसे बुरे कर्म के लिये दोषी नही ठहराया जा सकता। महाभारत का एक पर्व भी यही बात सिद्ध करता है कौरव और पांडवो का युद्ध मुकरी हो गया। दोनों युध्धक्षेत्र में आमने-सामने खड़े हो गये। अर्जुन ने देखा कि उसके सामने प्रतिस्पर्धी के रुप मे उसके तातश्री, गुरुजन, तथा उसके ही खून के चचेरे भाई खडे है और उन्हे ही मारना है तो उसका हृदय कांप उठा, उसने युद्ध करने से इन्कार कर दिया। इसपर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टी प्रदान की। अर्जुन को श्रीकृष्णने बताया कि देखो, ये सारे के सारे पहलेही मर चुके है। तुम केवल इन्हे मारने के लिये निमित्त मात्र हो। यह देखकर ही अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो गया। इस प्रकार मनुष्य कर्म करता है तो केवल निमित्त मात्र ही होता है। नतीजा निकालने वाला या फल देने वाला ईश्वर होता है। इसपर भी मनुष्य के हाथ मे मुक्ति के लिये कर्म करना और रोजाना जिन्दगी के लिये कर्म करना होता है। मुक्ति के लिए कर्म करना ही धर्म है और ज्ञानी लोग जानबूझकर धर्म करते है। भगवान का नामस्मरण करना श्रेष्ट कर्म है, इससे मुक्ति का मार्ग सुकर होता है। मेरा तो इतनाही कहना है कि श्रेष्ठ कर्म करना है तो - "जपाकर जपाकर हरी ओम् तत्सत। रटाकर-रटाकर हरी ओम् तत्सत।।" जिस तरह शराब का नशा मानव को घडी दो घडी सतेज रखता है, उसी तरह कामना का नशा भी कुछ समय के लिये मतवाला बना देता है। शराब और कामना, दोनों मतवाला बना देती है। दोनों ने मानव को ज्ञान मार्ग से, आत्माभिमुख होने के कार्य से, विचलित किया है। दोनों के नशे के दुष्परिणाम, भयंकर परिस्थिति पैदा करता है। ३५० संसारी और संसार त्यागी, दोनों का संरक्षण करने वाली यदि कोई संजीवनी है तो वह है मात्र धर्म। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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