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________________ अन्यच कृति क्षमा दमोड क्षमों 5 स्तेयं, शौच मिन्द्रिय निग्रह। धीर विद्या सत्यम क्रोधो, दशकं धर्म लक्षणं॥ अर्थात - सत्य, धैर्य, क्षमा, इन्द्रियों को अपराध प्रवृति से रोकना, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों को साधना में केन्द्रित करना, दुर्व्यसन का त्यागना, अविद्या को मिटाना, क्रोध न करना तथा सन्तोष रखना इत्यादि जो उल्लेख है। इनमें प्राय: परस्पर सिद्धान्त: एकरुपता ही प्रतीत होती है। भारतीय दर्शन (उपनिषद, विशिष्टाद्वैत, न्याय, सांख्य व जैन) में कर्म संचित कर्म का जीर्ण करना, सुखवाद का त्याग, तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, इनमें मूल सिद्धान्तों की प्राप्ति में एक मत सा है। हो सकता है इन्हें रुप देने में भिन्नता प्रतीत हो। मोक्ष प्राप्त पुनर्जन्म से मुक्ति पाना ही है। पूर्वजन्मकी मान्यता ही पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर विश्वास उत्पन्न करता है। बौद्ध दर्शन में कर्म के भेद व दूसरे भेद में पुनर्जन्म का उल्लेख किया है। वहीं निर्वाण के प्रथम लाभ में पुनर्जन्म का वर्णन है। न्याय ने कहा है - संचित कर्म भोग लेने पर फिर वह जन्मग्रहण के चक्र में नहीं पड़ता। यह पुनर्जन्म से मुक्ति ही है। वेदान्त में संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण या संचीयमान ये तीन प्रकार के कर्म है। तत्त्वज्ञान से संचित कर्म का क्षय तथा क्रियमाण कर्म का निवारण होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म के बंधन से छुटकारा मिल जाता है जैन दर्शनने भी पुनजन्म को माना है। न्याय और वेदान्त ने संचित कर्म का समर्थन करते हुए लिखा है कि संचित कर्म के कारण जन्म-पुर्नजन्म के चक्र में पड़ने से अनेक शरीर धारण करना पड़ता है। प्राय: समस्त भारतीय दर्शन में सामंजस्यता किसी न किसी रूप में विद्यमान है। अणु-परमाणुवाद के रुप में भी ऐसा ही विवेचन है। कठोपनिषद में आत्मा का निवास अणु से भी अणुतर और महान से भी महत्ता बतलाया है। न्याय वैशेषिक के अनुसार मन को अणु कहा है। जड़जगत को चार प्रकार के परमाणुओं से बना हुआ कहा है। परमाणु नित्य एवं अपरिवर्तन शीत होते है। वैशेषिक की दृष्टि से संसार के सभी कार्य द्रव्य चार प्रकार के परमाणुओं (पृथ्वी, जल, तेज और वायु) से बनते है। इसी लिये वैशेषिक मत को परमाणु बाद (Atomism) भी कहते है। कणाद का परमाणुवाद पाश्चात्य से भिन्न है। दो परमाणुओ का प्रथम संयोग "द्रयणुक" है। तीन द्रयणुक का संयोग त्र्युणुक या त्रसरेणु कहलाता है। परमाणुओं की गति या कर्म के फलस्वरुप उनके संयोग होते है। जैन दर्शन - पुद्गल के सबसे छोटे भाग को जिसका और विभाग नहीं हो सकता उसे अणु कहता है। यहां न्याय वैशेषिक का परमाणु से जड़जगत का सम्बन्ध पुद्गल के अणु से मिलता जुलता है। द्रयणुक का वह भाग जो सूक्ष्माति सूक्ष्म है, जिसका भाग होना संभव नहीं है। __भारतीय दर्शन में जैन काल भी अति प्राचिन है। इसमें रुपान्तर या सम्प्रदाय भेद समयानुसार होता रहा है। एक दूसरे दर्शन के विचार लेना या छोड़ना अथवा नये ढंग से प्रतिपादन करने की परंपरा का क्रम चलता आ रहा है। यह विशेषता प्राय: यहां के सभी दर्शन में देखने को मिलेगी। इतना भी निश्चय है कि धर्म में विज्ञान का समावेष भी देखने को मिलता है। जैन धर्म में भी जीओ और जीने दो के लिये पंच महाव्रत का पालन सहायक है। सन्यासोपनिषद् विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो वह हैं मन को वश में करना। २९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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