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________________ इसी भारत देश और हिन्दू समाज में हुआ है। अनेक आचार्य भी चार वर्ण व्यवस्था की शाखाओं में से आकर ही जैन दर्शन का प्रतिपादन किया है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव का उपाख्यानन भागवत के पंचम स्कन्द में मिलता है। मुण्डकोपनिषद के चतुर्थ अनुबढक में वेदोंमें ऋषभ (श्रेष्ठ या प्रधान) और सर्वरुप लिखा है-यशछन्द सा-मृषभो विश्वरुपा।।१।। जबात्पु पनिषद में जीव ही पशु है-उसका पति " पशुपति" है। शब्दार्थ के रुप में ऋषभ-सांड भी आता है। इसके देव को भगवान पशुपति के रुप में शृद्धाकी प्राचीन परम्परा चली आ रही है। हमारे भारतीय समाज की यह विशेषता रही है कि इसमें चिन्तन की भिन्नता सदैव से चली आ रही है। भारत में जितने दर्शन है उतने संभवतया इससे बाहर नहीं है। यहां वेदान्त मीमांसा, योग, सांख्य, न्याय और वैशेषिक इन बड़दर्शन के अतिरिक्त चार्वाक, जैन और बौद्ध ये सभी भारतीय दर्शन के अन्तर्गत है। इनमें चार्वाक के अतिरिक्त दर्शन में प्राय: अणुपरमाणुवाद, कर्मवाद और पूर्वजन्म का विवेचन अधिकतर समानता लिये हुए ही है। इन पर पाठकों की जानकारी के लिये यहां संक्षिप्त रुप से प्रकाश डाल देना उचित समझता हूं। आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन ने स्पष्ट किया है कि यह बन्धन से मुक्त होने पर अनन्तज्ञान और सर्वज्ञ है। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक गुणरत्न ने आत्मा को शरीर क्रियाओं का परिचालक कहा है। कठोपनिषद की व्याख्या का संकेत मिलता है - आत्मान रथिनं विद्धि शरीर रथभ वेतु। बुद्धि तु सारथि विद्धि मन: प्रग्रह मेवच॥ अ.१ व ३ श्लो. ३॥ अर्थात तूं आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ बुद्धि को सारथि और मन को लगाम समझ। वहीं स्व संवेद्यो पनिषद आत्मा को मोक्ष और नरक से भिन्न रखा है। आत्म बोधो पनिषद का सिद्धान्त है-एकोऽहम विकलोऽहं निर्मल निर्वाण मूर्ति रेवाहम्। निरवयवो 5 हम जो हं केवत सन्मात्र सारभूतो ऽ हम्॥ द्वि.अ. ६|| अर्थात मैं एक हूं, मैं परिपूर्ण हूं और निर्वाण मूर्ति हूं, मैं अवयवों से रहित हूं, मै अजन्मा हूं और केवलमात्र संन्त स्वरुप में सर्व का सार रुप हूं। चार्वाक के अनुसार "चैतन्य विशिष्ठ शरीर ही आत्मा है। बौद्ध दर्शन सबसे भिन्न है कि वह अनात्मवाद का ही पक्षधर है। वहीं बौद्ध दर्शन सबसे भिन्न है कि वह अनात्मवाद का ही पक्षधर है। वहीं बौद्ध की महापान शाखा ने पारमार्थिक आत्मा या महात्मा को मिथ्या नहीं माना है। नव्य नैयायिक कहते है कि मन का आत्मा से सम्बन्ध है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा एक नित्य, स्वप्रकाश चैतन्य है। आत्मा न तो ज्ञाता है न ज्ञेय है न 'अम' ही है। विशिष्टाद्वैत-वैदान्तब्दे अनुसार "ज्ञाता अहमर्थ एवात्मा" इसे ज्ञाता और अहम् कह सकते है, ऐसा कहा है। वैशेषिक दर्शन ने आत्मा को नित्य और सर्वव्यापि द्रव्य जिसे चैतन्य का आधार माना है। इसे जिवात्मा और परमात्मा, दो स्वरुप किये है। भिन्न भिन्न शरीर में भिन्न भिन्न जीवात्मा कहा है। सांख्य का एक तत्व प्रकृति दूसरा तत्व पुरुष (आत्मा)। आत्मा का अस्तित्वनिर्विवाद कहा है। योग की द्रष्टि से जब चित्र किसी वृत्ति में परिणत हो जाती है तब उस पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है और वह आत्मसात् हो जाता है। इसलिये ऐसा भासित होता है कि पुरुष (आत्मा) ही सब कुछ सोचता है और करता है। भारतीय दर्शन के अनेक मतमतान्तर में आत्मा के सम्बन्ध में फिर जैन दर्शन पर आते है। जहां आत्मा का माप शरीर के बराबर कहा २९६ जिस जीव की धर्म के प्रति सची भावना हैं उसे धर्म-चर्चा में आनंद ही आनंद दिखाई देता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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