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________________ की धार्मिक क्रांतियां तथा गांधी की राजनैतिक गतिविधियां, उस साधना के विभिन्न रुप है जो साधक के साथ-साथ समाज को भी सही दिशा में अग्रसर करते हैं। यहाँ साधक के भटकने का तो प्रश्न ही नहीं है क्यों कि वे पूर्णता को प्राप्त कर जीवन की ओर लौटे हैं। उक्त साधनामय जीवन पद्धति का मूल वह निवृत्ति हैं जो तपस्या द्वारा शुद्ध तथा ज्ञान द्वारा मुखरित होता हैं। इसे उत्तम प्रकार से समझाते हुएं महावीर स्वामी ने एक स्थान पर कहा हैं - "जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठि कुव्वइ। साहीणे चयइ भोये, से हु चाइ तिवुचई।" अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी जो मनुष्य सुन्दर तथा प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी उनकी ओर पीठ करता हैं अर्थात् उन भोगों में अलिप्त रहता है; इतना ही नहीं अपने अधिन होने वाले मोगों को भी जो छोड़ता है, वही सचा त्यागी है। वस्तुत: त्याग के लिए आवश्यक हैं-ज्ञान पूर्वक वस्तु प्रहाण। यह ममता के पूर्ण परित्याग तथा पूर्ण वैराग्य होने पर ही संभव है। आज समाज में चारों ओर अशांति के तांडव की जड़ में हमारी सांसारिक एषणाओं के प्रति प्रवृत्ति ही हैं। दृष्टि एवं विचारों के संकुचन से हम दूसरे के महत्त्व को स्वीकार करने जैसे मानसिक तप से विरक्त हो गये हैं। हमारी अस्मिता हमें, आत्मालोचन करने नहीं देती। जीवन के समस्त क्षेत्र हमारी महत्ता एवं बड़प्पन के प्रदर्शन - स्थल बन गये हैं। हम अपनी संपुर्ण शक्ति को राजनीति समाज विज्ञान के आविष्कारों, साहित्य के वादों यहाँ तक कि धर्म, संगीत या अन्य ललित की प्रभंजन वेगशाली प्रतिस्पर्धाओं में आँख मूंदकर झोंक रहे हैं। जिनसे दृष्टि को चौंधिया देने वाला प्रकाश तो मिल रहा है परन्तु शांति दायिनी शीतल चन्द्रिका का सर्वथा अभाव है। यही कारण है कि अतिशय भौतिक उपलब्धियों के होते हुए भी हम मानवता के आत्मिक विकास की दशा में कोसों पीछे हैं। विकास के नाम पर मानव के -हास की कथा कितनी व्यथा पूर्ण है - कहने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है अतीत के पुन: मूल्यांकन द्वारा सही दिशा बोध की। क्योंकि विकास के अनादि क्रम में हम मात्र कर्म की दृष्टि से ही नहीं, अपने दर्शन, चिंतन, आस्था आदि की दृष्टि से भी उस स्वर्णिम ,खला की कड़ी हैं जिसका एक छोर भविष्य में अलक्ष्य है। इस क्रम बद्धता के अभाव में हमारा मुल्यांकन परिचय संभव नहीं। हमें कर्म के चुनाव की शक्ति प्राप्त है अत: परंपरा के सचेतन संग्राहक होने के नाते निवृत्ति - पथ के प्रति संकुचित या कुंठित मनोवृत्ति त्याग कर विराट् दृष्टिकोण अपनाना होगा। आज की व्यापक जटिलताओं के बीच में भी समन्वय सह अस्तित्व एवं सहिष्णुता का अवमूल्यन नहीं हुआ है। क्योंकि समन्वय एवं सह अस्तित्व शारीरिक धरातल पर अहिंसा के ही दूसरे रुप हैं। तथा सहिष्णुता मानसिक धरातल पर अनेकांत के। "योग:कर्म सु कौशलम।" का उपदेश कुरुक्षेत्र के अर्जुन के लिए जितना उपयोगी था, बीसवी सदी के मानव समूह के लिए भी उतना ही प्रेरणादायी है। अत: अलौकिकता के आग्रह से मुक्त, लोक जीवन के धरातल पर प्रजातंत्र एवं मानवीय मूल्यों की उर्वर भूमि में वपित कर्मशीलता तथा विश्व बंधुता के बीज अनंत शांति को पल्लवित तथा अनंत ज्ञान और अखंडानंद के रस - सौरभ को फलित पुष्पित कर सकेंगे। दोडों का स्वयं निरीक्षण करे, निरीक्षण करने बाद उसका संशोधन कें, यह कोई छोटी बात नहीं। २९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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