SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हो सकती है, स्वरूपाचरण के दर्शन नहीं हो सकते। उपयोग, शुभ उपयोग में परिणत होगा, शुभ शुद्ध में परिणत होगा, ब्रह्मचर्य तब चरितार्थ हो जाएगा। उपयोग जागरण के लिए जीवन में श्रम साधना की आवश्यकता असंदिग्ध है। शरीर के साथ किया गया श्रम मजूरी को जन्म देता है, बुद्धि के साथ किया गया श्रम कारीगरी को उत्पन्न करता है और हृदय के साथ किया गया श्रम कला का प्रवर्तन करता है। जीवन जीना एक कला है। यही कला जीवन को बनाने की कला है। इसी का अपर नाम है. आचार, चरित्र। चरित्र अर्थात् नैतिक शक्ति, यदि नैतिक शक्ति का विकास होता है तो वह आत्मा का विकास है, जीवन का विकास है। ब्रह्मचारी सदा स्वावलम्बी होता है उसके लिए जागतिक पर पदार्थों के आकर्षण निरर्थक हो जाते हैं। उसकी आत्मा में सौन्दर्य का जागरण होता है। तब उसे सारा जगत सौन्दर्यमय दिखाई देता है। उसके लिए विनाशीक औदारिक शरीर का कोई मूल्य नहीं है और इसका कारण है उसमें शील का उजागरण। शीलजागरण प्राणी में समत्व को जगा देता है। फलस्वरुप वह यशस्वी बनता है, वर्चस्वी बनता है, और बनता है तेजस्वी। जैन शास्त्रों में उत्तराध्ययन सूत्र का विशेष महत्व है। इस ग्रंथ में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जो नियम-उपनियम निर्धारित किए हैं वे उल्लेखनीय हैं। किसी खेत में खड़ी खेती की रक्षा के लिए 'बार्ड' की आवश्यकता असंदिग्ध है, उसी प्रकार शील संरक्षण के लिए कतिपय नियमों का अनुपालन आवश्यक है। यथा १- ब्रह्मचारी स्त्री पशु एवं नपुंसक - सहित मकान उपयोग नहीं करता। २ - स्त्री-कथा नही करता है। ३ - स्त्री के आसन एवं शय्या पर नहीं बैठता है। ४- स्त्री के अंग एवं उपांगो का अवलोकन नहीं करता है। - स्त्री के हास्य एवं विलास के शब्दों को नहीं सुनता है। - पूर्व सेवित काम - क्रीडा का स्मरण नहीं करता है ७ - नित्य प्रति सरस भोजन नहीं करता है। ८ - अतिमात्रा में भोजन नहीं करता है। ९ - विभूषा एवं भंगार नहीं करता है। १० - शब्द, रुप, गंध, रस और स्पर्श का अनुपाती नहीं होता है। यदि इन सभी बातों का कोई साधक उपयोग संकल्पपूर्वक करता है तो वह अपने में ब्रह्मचर्य धर्म लक्षण को जगा सकता है। शीलवान को अपनी इन्द्रियों पर अपने मन पर और अपनी बुद्धि पर संयम रखना आवश्यक हो जाता है। एक जीवनवृत्त का स्मरण होना हुआ है। आदिवासियों की बस्ती में मेरा जाना हुआ। उनका आधा शरीर नंगा रहता है। महिलाएँ कुछ विशेष वस्त्र धारती हैं। अधो अंगो को पत्तो से, बलों से वे ढक लेती है, शेष नग्न शरीर रहती है। शिष्ट मण्डल के सभी सदस्य सम्भ्रान्त थे। उनमें से एक नेता तन से साफ थे, सुथरे थे किन्तु मन से मैले थे। मनचले थे। आदिवासियों ने अभ्यर्थना में नाना प्रकार के आयोजन किए। वे सभी आकर्षक थे। कलापूर्ण थे। कला जागे, संसार के छोटे-बड़े प्रत्येक व्यक्ति आशा और कल्पना के जाल में फंस कर भव भ्रमण करते रहते है। २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy