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________________ 'पर' का लोप हो जाय यही अहिंसा है। अहिंसा रुपी शाश्वत धर्म की व्याख्या करते हुए महावीर ने कहा "सव्वे पाणा ण हन्तव्वा, ण अजावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, व उद्देवेतव्वा, एस धम्मे धुवे, णिइए, सासए।" अर्थात् प्राणियों का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर अपनी सत्ता न लादनी चाहिए, उन्हे पीडित, परितप्त तथा उदिन भी नहीं करना चाहिए। यहीं शाश्वत धर्म, ध्रुव धर्म है। प्रतिक्रमण करते समय 'खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु में' कहकर सभी जीवों के प्रति क्षमा भाव रखते हुए सभी से क्षमा मांगी जाती है। ज्ञान-अज्ञान में किसी भी जीव के प्रति अप्रिय कार्य के लिए क्षमा मांगने का यही तात्पर्य है कि हमारा सभी के प्रति मैत्री भाव बना है। "मित्ती में सव्व भूएस, वैर मञ्झं ण केवइ।" स्पष्ट ही हम अपनी सुरक्षा चाहते है और सुख-शांति चाहते है तो अन्य जीव भी यही चाहते है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। "सव्वे जीवा विइच्छति, जीविइं न मरिजिई' -दशवै सूत्र अ. ७, गा. ११. अहिंसा को परिभाषित करने से पूर्व महावीर ने जीवों का सूक्ष्म विवेचन किया। अपने दिव्य ज्ञान से उन्होंने अव्यवहार राशि, व्यवहार राशि (निगोद), पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं वनस्पति में जीव का अस्तित्व देखा। पेड पौधौ में भी सचेतनता विज्ञान के लिए भले ही एक शताब्दी पुराना विचार हो, परन्तु महावीर ने उनके सुख-दु:खो को कितने सूक्ष्म रुप में जाना, वह आगमों में गुम्फित है। सर जगदीशचन्द्र बोस के वैज्ञानिक प्रयोगो एव बेकस्टर द्वारा निर्मित गालवेनोमीटर से हमें पेड पौधौ में संवेदनशीलता का ज्ञान होता है। परन्तु उस समय कहां भी प्रयोगशालाएं? अपनी आत्माही महावीर के लिए प्रयोग-स्थल था-अन्तर्मुखी होकर उन्होंने अनुभव-रत्न हमें दिये हैं। अहिंसा की भावना का विकास तभी संभव है जब हर व्यक्ति इकाई रुप में ज्ञानचेता होकर स्वाभाविकता के धरातल पर वस्तुओं के साथ एवं अन्य प्राणियों के साथ सम्वादी (हारमोनियस) संबंध में जिये। अन्य शब्दों में अहिंसा का अर्थ है। स्वयं अपने स्वभाव में अभंग (अनडिस्टर्ड) रहें और दूसरों को भी अपने स्वभाव में अभंग रहने दें। इस विचार से विश्व में शांति व सुख का साम्राज्य स्थापित होने में किसी प्रकार के सन्देह को स्थान नहीं है। अपरिग्रह एवं विश्व-कल्याण 'दशवैकालिक सूत्र' में परिग्रह को परिभाषित करते हुए महावीर ने कहा है-'मूच्छा परिग्गहो वुत्तो' अर्थात् मूच्छा ममत्व ही परिग्रह है। आज विश्व में अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति से जमाखोरी, कालाबाजारी एवं भ्रष्टाचार पनप रहे हैं। धन, मकान, वैभव के प्रति अटकाव से भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। आज महावीर के अपरिग्रवाद की नितान्त आवश्क ता है। जीवन में अपनी अधिकतम आवश्यकताओं वस्तुओं के प्रति ममत्व त्यागना तो अपरिग्रह साधु, साधक या सज्जन व्यक्ति को वैर मास नहीं रखना चाहिए। २६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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