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________________ से मुक्त होना ही है। छहढालाकार ने निष्कर्ष रुप में लाख टके की बात कही है लाख बात की बात यहै निश्चय उर लाओ। छोड सकल जग दंद-फंद निज आतम ध्याओ॥ अपनी आत्मा का ध्यान या चिंतन स्वार्थ नहीं है। क्योंकि आत्मा की शक्ति परिमित नहीं है और उसकी ज्योति ब्रह्माण्डव्यापी है। एक आत्मा में सर्वशक्ति का निवास है, इसलिए वह विश्व-कल्याण से विपरीत स्थिति नहीं है। भगवान महावीर ने सूत्र रुप में कहा है-जो एक को जानता है वह सबको जानता है। हम सर्वप्रथम अपने को पहचान ले, विश्व तो तब जाना हुआ ही समझो। लेकिन वास्तविकता यह है कि मनुष्य नाना वेश या रुप धारण करके भी अपने को नही जान पाता। उसकी आँखे निरन्तर अपने से बाहर, दूर विश्व के मंच -पर परिवर्तनशील द्रष्यों को देखने में लगी रहती है, जो कि अपने में एक माया है, ग्रन्थि है। माया के यथार्थ स्वरुप को जानने के लिए भी अपने को जानना नितांत आवश्यक है। जैनआगम ग्रन्थों में जो कथाएँ मिलती है, उनका कलागत मूल्यांकन करना, साहित्य मनीषियों का कार्य भले हो, उन कथाओं के भीतर एक शाश्वत सत्य आलोकित है कि मुक्ति की साधना के पथ पर चलने में यात्री बार-बार फिसलता है, खाई-खंदक में गिरता है, जन्म-जन्मांतर के अपार दु:ख-सागर में डूबता है, कभी-कमी सुख स्वर्ग में भी भोगैश्वर्य सम्पदा प्राप्त करता है। परन्तु यह सब तो पथ के अवरोध है, शूल-काँटे है। इससे उत्तीर्ण होने पर ही सिद्धि हाथ लगती है। जब व्यक्ति 'मैं' से मुक्त होकर 'सर्व' का हो जाता है, अपने को शून्य कर देता है-अपने में से कर्ताभाव को समाप्त कर देता है, तभी नश्वरता से अविनश्वता के भवन में चरण धरता है। जैन-साधना व्यवहार और निश्चय के रुप में द्विविध है। यह द्विविध साधना भी श्रावकधर्म एवं श्रमण-धर्म के रुप में द्विविध है। श्रावक की साधना व्यवहार-प्रधान होते हुए भी उसकी द्रष्टि निश्चयमूलक साध्य पर होती है। श्रावक की साधना निश्चय का पूरक होती है, तभी वह एक समय समस्त बाह्यताओं से निवृत्त होकर श्रमण मार्ग की और प्रवृत्त होता है अन्तुर्मुख होता है। श्रावक धीरे धीरे एकादश सोपानों पर चढता है यह ठीक है कि उसकी यह व्यवहार साधना खान-पान तथा स्थूल व्रतों कर सीमित होती है, उसका समूचा व्यवहार परस्पर-सापेक्ष होता है, एवं सांसारिक समस्याओं से आबद्ध भी होता है, किन्तु अनादिकालीन मोहनीय संस्कारों एवं मिथ्यात्वों से ग्रसित जीवन को एक नई दिशा देते समय ऐसा नैतिक चरित्र भी बड़ा क्रान्तिकारी होता है। श्रावकधर्म की जो आचार-संहिता जैन धर्म में प्रतिपादित है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। बाहर से वह नैतिक दिखती है जरूर लेकिन उसके बीज बहुत गहरे गये होते है और उनमें विशाल वृक्ष बनने की क्षमता होती है। सामाजिक शिष्टाचार के लिए या राष्ट्रिय चरित्र की एकरुपता के लिए नैतिक उपदेशो से भरी हुई आचार-संहिता मुनष्य को उपर-ऊपर से आकर्षित करती है और उसे भी नैतिकता का मुखौटा लगाने की सुविधा मिल जाती है, किन्तु इतने से वह आत्म -विकास की ओर जाने में समर्थ नहीं हो जाता बल्कि आत्मवंचक ही अधिक होता है। जैन आचार-संहिता ने कभी शिष्टाचार का नैतिक उपदेश नहीं दिया। श्रावक के वतों की विशेषता यह है कि इन व्रतों को स्वीकार करने के उपरांत -इनमें से किसी एक व्रत को भी किसी भी अंश में स्वीकार करने के उपरांत - मनुष्य में बदलाव प्रारम्भ हो जाता है, क्योंकि यह व्रत-स्वीकृति आत्मशोधन एवं आत्मशद्धि के लिए होती है। किसी भी छोटे-बडे मंत्र की आराधना में सिद्धि तन, मन और प्राण की एकाग्रता के बिना होती की नहीं। २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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