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________________ आध्यात्मिक साधना को प्राय: सभी धर्मो ने महत्व दिया है। सबके अपने-अपने मार्ग है, विधियाँ है और आचारगत विशेषताएं है। जब साध्य ओझल हो जाता है और साधन ही प्रमुख बन जाता है, तब आचार में जड़ता आ जाती है। इस जड़ता के निवारण के लिए भी प्रयास करना पड़ता है। भारतीय धर्मो में वैदिक, जैन और बौद्ध अपनी विशेषता एवं महत्ता रखते है। वैदिक धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वतन्त्र चिंतकों के कारण उसमें युगानुकूल प्रवृत्तियों का समावेश होता गया और व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता रही कि चाहे जिस मार्ग को अपना कर कल्याण-साधना करे। जैनधर्म की साधना-पद्धति मूल में एक प्रकार की रही, उसके साधनों में यदाकदा कछ हेरफेर होता रहा। जैन साधना का मौलिक आधार दार्शनिक विचार रहा जो वैदिक धर्म से सर्वथा भिन्न है।। वैदिक धर्म ने जहाँ कर्म, भक्ति और ज्ञान पर साधना का भवन निर्मित किया वहाँ जैनधर्म ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता पर बल दिया। जैन साधना का लक्ष्य रहा परमात्म-पद की प्राप्ति जबकी वैदिक साधनाका लक्ष्य रहा है परमात्मा मे लीनता इसीलिए हम देखते है कि जैन मनीषियों ने वैदिक धर्म के क्रियाकाण्डों में आ रही जडता का पूरी शक्ति के साथ विरोध किया। जटा बढाना, नदी में स्नान करना, श्राद्ध करना, तर्पण करना, सूर्यादि ग्रहण के समय व्रत-दान करना, यज्ञोपवीत धारण करना, आदि सैकडो क्रियाओं को साधना का अंग मानने से इनकार करके साधना के क्षेत्र में महान क्रान्ति की थी, इसमें संदेह नही। जैन-साधना की गति वीतरागता की ओर है। भौतिक सुख-सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का जीवन में कोई महत्व यहाँ स्वीकार नहीं किया गया । जो यह मानता है कि में सुखी-दुखी हूँ, राजा-रंक हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूँ, सम्पन्न-विपन्न हूँ, वह जैनधर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है। बहिरात्मा वह है, जो मोहासत है, मिथ्यात्व में जीता है। और जिसे अपने अस्तित्व कि यथार्थता का पता नहीं है। ऐसे व्यक्ति को जैनधर्म बेहोश कहता है। वह मोह की महावारुणी पिये हुए है। वह जानकर भी नहीं जानता, देखकर भी नहीं देखता। तब गुरु-प्रसाद से बहिरात्मा को अपने अस्तित्व का, अपने जीवन के मूल्य का ज्ञान होता है और संसार की नश्वरता का दर्शन खुली आँखों से करता है, तो वह इन सबसे विरक्त होकर अंतर्मुख हो जाता है। तब उसे सारा बाह्म वैभव, माया और छलावा लगने लगता है। वह तब निर्ग्रन्थ हो जाता है। समस्त ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है। सारे बाह्य सौन्दर्य में उसे विरुपता दिखाई देने लगती है। एक जाज्वल्यमान आत्मा का स्मरण वह करता है। भेद-विज्ञान उसमें जाग जाता है और वह स्वयं अपना ही दीपक बन जाता है। जैन-साधना की कुछ, पद्धति तो है, पर पद्धति का उपयोग साधन के तौर पर ही किया जाता है। अन्तत: तो सब पद्धतियों से परे होने पर ही साध्य की उपलब्धि होती है। पद्धतियाँ तो फिसलन से, भटकाव से बचने के लिए संकेत मात्र है। पद्दतियाँ तो अनुभवियों के प्रयोग है जिनसे सबक लेकर साधक को अपना मार्ग तय करना है। प्रश्न यह है कि क्या भौतिकता को अध्यात्म में परिणत किया जा सकता है ? भौतिकता की निन्दा करना और उसे छोडकर जंगल का रास्ता अपना लेना कठिन नहीं है, किन्तु इसमें साधना का सूत्र हाथ से छूट जाता है। पंचेन्द्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपायों का उल्लेख मिलता है और यह भी कि घर छोडकर अनगार बन जाना चाहिए। अनेक साधक मुनिवेश धारण करके विचरण भी करते है। प्रारम्मिक अभ्यास की दृष्टि मृत्यु के समय संत के दर्शन, संत का उपदेश और संत का सानिध्य तो परम औषधि रुप होता है। २४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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