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________________ हैं ऐसे मनुष्य संसार में निर्वाण को प्राप्त करते हैं। क्योंकि जिसका मार्ग समाप्त हो चुका है, जो शोकरहित है, तथा सर्वथा विमुक्त है, सब ग्रंथियों से छूट चुका है, उसके कोई संताप नहीं है।१९ एवं "रहदो व अपेतकद्दमो संसारा न भवन्ति तादिनो।" अर्थात जलाशय के समान कीचड से रहित मनुष्य को संसार नहीं होता। "यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते" (गीता) अपितु विपरीत बुद्धिवाला, आलसी, अज्ञानी और मूर्ख जीव श्लेष्म में लिपटी हुई मधुमक्खियों की तरह संसार में फंसते जाते है, काम-भोगों का त्याग करने वाला "जे तरंति अतरं वणिया व" अर्थात व्यापारी के जहाज की तरह तिर जाते हैं। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त-कर्म या पुनर्जन्म का सिद्धान्त शाश्वत नियम पर आधारित है। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार ही कर्मफल की प्राप्ति होती है। शुभकर्म के कारण अच्छा फल मिलेगा और अशुभ कर्म के कारण बुरा फल। उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययनो में कर्म की बात का स्पष्टीकरण किया गया है। यह जीव संसार में नाना प्रकार के कर्म करके अनेक गोत्र वाली जातीयों में होकर व्याप्त हुआ है। कर्मों के अनुसार यह जीव कभी देवलोक में और कभी असुर की पर्याय को तो कभी क्षत्रिय, चाण्डाल, आदि की पर्याय को प्राप्त होता रहा और अनेक पर्यायो में अपने ही कारण से भटकता रहा, मनुष्य जन्म को पाकर भी अज्ञानता के कारण यत्र-तत्र भ्रमण करता रहा। ग्यारहवें अध्ययन में मनुष्य जन्म की सार्थकता को बतलाया है। जिन कर्मों के कारण संसार में भटक रहा है उसका विवेचन तेंतीसवें अध्ययन में भेद-प्रभेद के साथ किया गया है और अन्त में यह उपदेश दिया गया है, कि हे भव्य पुरुष! कर्मो के विपाक को जानकर इनको क्षय करने का प्रयत्न करें। चौंतीसवें अध्ययन में लेश्या द्वारा मनुष्य के भावों को समझाया तथा कहा है कि जो पुरुष जिस रुप का विचार करता, वह कृष्ण, नील, कापोत, पीत-पद्म और शंख इन छ: रुप को धारण कर लेता और कभी इन्हीं काषायिक भावों के द्वारा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों को प्राप्त करता रहता है। जो अपने आत्मस्वरुप को समझने लगता और जिसकी दृष्टि राग-द्वेष एवं मोह से रहित हो जाती है वह कर्म से मुक्त हो जाता है और उसका जन्म मरण रुप रोग मिट जाता है। जो सार से सार को तथा असार से असार को जानते हैं। सम्यक् संकल्पो को देखने वाले वे लोग सार को प्राप्त करते है।२१ इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्दमोहेन भारत |२२ अर्थात संसार में इच्छा-द्वेष का उत्पन्न होना अज्ञानता का कारण है। रागद्वेषवियुक्त:२३ राग-द्वेष से विमुक्त कर्मों से मुक्त हो जाते है। राग-द्वेष से युक्त मनुष्य शास्त्र के अर्थ को भी विपरीत मान लेता है। राग-द्वेष दोनों ही वैरी है।२४ शंकरभाष्य में कर्म के विषय में स्पष्ट कथन किया है कि कर्म आरम्भ किये बिना जन्म-जन्मान्तर के संचित पापों का नाश नहीं हो सकता। पाप-कर्मो का नाश होने पर मनुष्यों के अन्त:करण में ज्ञान प्रकट होता है। इसलिए ही नियतकर्म का आचरण श्रेष्ठ कहा है, उसके प्रति आसक्ति नहीं, क्योंकि कर्मफलआसक्ति कर्मबंधन का कारण है।२५ गीता का केवल तीसरा अध्याय ही नही, अपितु इसके सभी अध्याय निष्काम कर्मयोग की शिक्षा देते है, जो परमात्म या परब्रह्म के साक्षात का कारण है। जैनदर्शन की तत्वदृष्टि प्रत्येक बात का स्पष्टीकरण कर देती है। जीव-अजीव इन तत्वो के आधार पर विश्व का सही सही ज्ञान हो जाता है। पर समझना है कर्म के कारणों को। आस्त्रव द्वारा कर्मो कर आना होता है और बन्ध में कर्म आकर इस तरह बँध जाते हैं जैसे २३८ रुप की कामना-इच्छा सिर्फ भोगी, विलास प्रिय पूरूषों के अंत:करण में ही रमण करती रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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