SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कथन में "ही" और "भी' का प्रयोग इस प्रकार होगा:___ हाथी किसी अपेक्षा दीवाल के समान भी है, किसी अपेक्षा खंभे के समान भी है, और किसी अपेक्षा सूप के समान भी है। यहाँ अपेक्षा बताई नहीं गई है, मात्र इतना कहा गया है कि "किसी अपेक्षा" अत: "भी" लगाना आवश्यक हो गया। यदि हम अपेक्षा बताते जावें तो "ही" लगाना अनिवार्य हो जायेगा, अन्यथा भाव स्पष्ट न होगा, कथन में दृढता नहीं आयेगी, जैसे-हाथी का पैर खम्भे के समान ही है, कान सूप के समान ही हैं, और पेट दीवाल के समान ही है। __ उकत कथन अंश के बारे में पूर्ण सत्य है, अत: "ही" लगाना आवश्यक है तथा पूर्ण के बारे में आंशिक सत्य है, अत: "भी" लगाना जरुरी है। जहाँ "स्यात्" पद का प्रयोग न भी हो तो भी विवेकी जनों को यह समझना चाहिए कि वह अनुक्त (साइलेन्ट) है। कसायपाहुड में इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है : "स्यात्" शब्द के प्रयोग का अभिप्राय रखने वाला वक्ता यदि स्यात् शब्द का प्रयोग न करे तो भी उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। अतएव स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं करने पर भी कोई दोष नहीं है। कहा भी है-स्यात् शब्द के प्रयोग की प्रतिज्ञा का अभिप्राय रखने से "स्यात्' शब्द का अप्रयोग देखा जाता है।" यद्यपि प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म-युगलों का पिण्ड है तथापि वस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते है, असम्भाव्य नहीं। अन्यथा आत्मा में नित्यत्व-अनित्यत्वादि के समान चेतन-अचेतन धर्मों की सम्भावना का प्रसंग आयेगा। इस बात को "धवला" में इस प्रकार स्पष्ट किया है।: "प्रश्न- जिन धर्मो का एक आत्मा में एक साथ रहने का विरोध नहीं है, वे रहें, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मा में रह नहीं सकते? उत्तर- कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मो का एक साथ आत्मा में रहना सम्भव है? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यव्य आदि धर्मो का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए, किन्तु जिन धर्मो का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।" अनेकान्त और स्याद्राद का प्रयोग करते समय यह सावधानी रखना बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में सम्भावित है भी या नहीं, अन्यथा कहीं हम ऐसा न कहने लगे कि कथंचित् जीव चेतन है व कथंचित् अचेतन भी। अचेतनत्व की जीव में सम्भावना नहीं है, अत: यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्ति-नास्ति के रुप में घटाना चाहिए। जैसे-जीव चेतन (ज्ञान-दर्शन स्वरुप) ही है, अचेतन नहीं। __वस्तुत: चेतन और अचेतन तो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व-अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, है नहीं। उनकी सत्ता एक द्रव्य में एक साथ पाई जाती है। अनेकान्त परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मो का प्रकाशन करता है। २२६ मानव जब परास्त होता है, हारता है, तब भी अपना दोष देखने जितना निर्मल-पवित्र नही बन सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy