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________________ भगवान् नेमिनाथ के शिष्य छह मुनि थे- अनीकसेन आदि। ये छहों सहोदर भ्राता थे, रुप रंग आदि में इतनी समानता थी कि इनमें भेद करना बड़ा कठिन था। दो-दो के समूह में वह छहों अनगार देवकी के महल में भिक्षा के लिए पहुँचे। देवकी के हृदय में यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये दो ही साधु मेरे घर भिक्षा के लिए तीन बार आये है, जबकि श्रमण नियम से एक ही दिन में एक घर में दो बार भिक्षा के लिए नहीं जाता। देवकी की इस शंका को मिटाने के लिए साधुओं ने अपना पूर्व परिचय दिया, जो कि उस परिस्थिति में अनिवार्य था। इसलिए भगवान ने साधु के लिए उत्सर्ग और अपवाद - दो मार्ग बताये है। उत्सर्गमार्ग में तो पूर्व परिचय साधक देता नहीं, लेकिन अपवाद-मार्ग में, यदि विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो दे सकता है। यह अपवाद-मार्ग जैन साध्वाचार में नीति का द्योतक है। इसी प्रकार केशी श्रमण ने जब गौतम गणधर से भ. पार्श्वनाथ की सचेलक और भ. महावीर की अचेलक धर्मनीति के भेद के विषय में प्रश्न किया तो गणधर गौतम का उत्तर नीति का परिचायक है। उन्होंने बताया कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तप की साधना ही मोक्ष मार्ग है। वेष तो लोक-प्रतीति के लिए होता है। इसी प्रकार के अन्य दृष्टान्त श्रमणाचार सम्बन्धी दिये जा सकते है, जो सीधे व्यावहारिक नीति अथवा लोकनीति से सम्बन्धित है। अब हम भगवान् महावीर की नीति का- विशिष्ट नीति का वर्णन करेंगे, जिस पर अन्य विचारकों ने बिल्कुल भी विचार नहीं किया है, और यदि किया भी है तो बहुत कम किया है। भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति के मूलभूत प्रत्यय है - अनाग्रह, यतना, अप्रमाद, उपशम आदि। समाज देश अथवा राष्ट्र का एक वर्ग अपने ही दृष्टिकोण से सोचता है उसी को उचित मानता है तथा अन्यों के दृष्टिकोण को अनुचित। वह उनके दृष्टिकोण का आदर नही करता, इसी कारण पारस्परिक संघर्ष होता है। आर्य स्कन्दक ने भगवान महावीर से पुछा - लोक शाश्वत है या अशाश्वत, अन्त सहित है या अन्त रहित? इसी प्रकार के और भी प्रश्न किये। भगवान ने उसके सभी प्रश्नों को अनेकांत नीति से उत्तर दिया, कहा लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। यह सदा काल से रहा है, अब भी है और भविष्य में रहेगा, कभी इसका नाश नहीं होगा। इस अपेक्षा से यह शाश्वत है। साथ ही इसमें जो द्रव्य-काल-भाव की अपेक्षा परिवर्तन होता है, उस अपेक्षा से अशाश्वत भी है। इसी प्रकार भगवान ने स्कन्दक के सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। इस अनेकांतनीति से प्राप्त हुए उत्तरों से स्कन्दक संतुष्ट हुआ। यदि भगवान् अनेकांत नीति से उतर न देते तो स्कन्दक भी संतुष्ट न होता और सत्य का भी अपलाप होता। सत्य यह है कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है। वस्तु स्थिर भी रहती है और उसी क्षण उसमें काल आदि की अपेक्षा परिवर्तन भी १. अन्तगड सुत्र, २. उत्तराध्ययन सुत्र १३/२९-३२, ३. भगवती २, ९. सद्ज्ञान के बिना सिद्धि नहीं। २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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