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________________ प्रकाश भी बिखर रहा है, पर बादलों ने उसे आवृत कर लिया है। बादल, बादल है। आवरण, आवरण है। आवरण वस्तु के स्वरुप को ढंक सकता है, पर उसे मिटा नहीं सकता। वह वस्तु की सत्ता का विनाश नहीं कर सकता। कल्पना कीजिए घर में दीपक जल रहा है और जलते हुए दीपक पर यदि ढक्कन रख दें, आवरण कर दें, तो इसका अर्थ हुआ दीपक का प्रकाश गायब हो गया। घर में अंधेर घुप्प हो गया। समूचा घर अन्धकार में डूब गया। अपने हाथ से रखी हुई वस्तु का भी आपको पता नहीं चल रहा है, कि वह कहाँ रखी है? और उस अंधकार में कहीं घुस-पुस हो जाए, चोर-चोर की आवाज लग जाए, तो सभी लोग उठकर इधर-उधर दौडते हुए परस्पर एक दूसरे से टकरा जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को चोर-चोर कह कर भिड़ पड़ते है, एक-दूसरे का सिर फोड़ने लगते है। क्योंकि उन्हें अपने-पराये का, चोर और साहूकार का क्या पता चलेगा अंधकार में? इसलिए वे एक-दूसरे को पहचान नहीं पा रहे है, परस्पर में टकरा रहे हैं। यह सब क्यों हो रहा है? क्या दीपक का प्रकाश समाप्त हो गया? ज्योति विलीन हो गई? ऐसा तो नहीं हुआ। दीपक का प्रकाश ढक्कन के अन्दर में तो जगमगा रहा है। उसकी ज्योति जल रही है। फिर अन्धकार क्यों हुआ? दीपक है, प्रकाश भी है, फिर भी अन्धकार है? दीपक जल रहा है, पर अन्धकार छाया हुआ है। कैसी विचित्र पहेली है? । आवरण हटा, प्रकाश मिला भारत का दर्शन और चिन्तन इस पहेली को ऐसे सुलझाता है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा में एक अखण्ड ज्योति जल रही है। वह आत्मा कहीं भी, किसी भी स्थिति में है-चाहे निगोद में हो, एकेन्द्रिय आदि योनि में हो, नरक या तिर्यञ्च गति में हो, सर्वत्र वह प्रकाशमान है, उसकी ज्योति जगमगा रही है, किन्तु उस पर काम, क्रोध, मद अहंकार आदि विकारों का आवरण छा गया है। कहीं पर आवरण गहरा छा रहा है। और कहीं पर झीना, दूधिया। जहाँ-जहाँ जैसा आवरण है, वहाँ अन्दर दीपक के जलते हुए भी बाहर में अन्धकार परिलक्षित होता है। यह आत्मा आवरण, ढक्कन से ढका हुआ दीपक है, घटाओं से घिरा हुआ सूर्य है। आवरण हटने के लिए है, घटाएँ नष्ट एवं विलीन होने के लिए है, किन्तु तुम्हारे दीपक-सूर्य का अस्तित्व नष्ट होने के लिए नहीं है। आवरण जो आया है, वह जाएगा। आत्मा की सत्ता को, अस्तित्व को जिसने ढक रखा है, वह उससे उन्मुक्त होगी, स्वतंत्र होगी और उस पर आया हुआ कर्म आवरण समाप्त होगा। आत्मा स्वर्ग में गया तब भी वह दीपक जलता रहा और नरक में गया तब भी। आवरण आते रहे, हटते रहे, कम या अधिक होते रहे और ज्योति जलती रही। जब आवरण कमजोर हो गए, तो उसके भीतर से प्रकाश छन कर आने लगा, आवरण कुछ गहरे हो गए तो प्रकाश का छनना भी कम हो गया। ज्ञान की तरतमता आवरण की तरतमता यानी सघनता और विरलता पर निर्भर करती है। प्रगाढ आवरणों के नीचे भी वह ज्योति जलती रही, नष्ट नहीं हुइ। कल्पना करो, यदि एक क्षण के लिए भी वह ज्योति बुझ गई, तो फिर उसका प्रकाश समाप्त हो जाएगा। फिर वह ज्ञान, ज्ञानावरण से आवृत्त नहीं रहेगा, किन्तु ज्ञानाभाव हो जाएगा। चेतना, चेतन नहीं रह कर, जड हो जाएगा। पर यह स्थिति आज तक न कभी आई है, और न कभी आएगी। १८८ तन-मन और प्राण की एकाग्रता से जो साधक साधना करता है उसे जगत में कोई वस्तु अप्राप्य वस्तु नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012037
Book TitleLekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpashreeji, Tarunprabhashree
PublisherYatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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