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________________ __ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य आधुनिक ! - को सच्चाई जानने, समझने एवं उसकी क्रियान्विति में कोई रचि गुर्दे, लीवर, पाँचों इंद्रियों का निर्माण स्वयं कर सकता है तब नहीं है। सारे सोच का आधार हैं भीड़, संख्या और बल। क्योंकि । क्या उसे स्वस्थ नहीं रख सकता? मानव-जीवन अमूल्य है। जनतन्त्र में उसी के आधार पर नेताओं का चुनाव और नीतियाँ अतः अज्ञानवश उसके साथ छेड़छाड़ न हो। वर्तमान की उपेक्षा निर्धारित होती है। फलतः उनके माध्यम से राष्ट्र विरोधी, भविष्य की समस्या न बने इस हेतु हमें अपने प्रति सजग, जनसाधारण के लिए अनुपयोगी स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली विवेकशील और ईमानदार बनना होगा। जो स्क्यं लापरवाह, कोई भी गतिविधि स्वार्थवश आराम से चलाई जा सकती है। बेखबर है उसकी चिंता दूसरा कैसे कर सकता है? आज अधिकांश उपचार हेतु रोगी की सजगता एवं सम्यक पुरुषार्थ चिकित्सकों का दृष्टिकोण पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण है। अहं से ओतप्रोत आवश्यक - है। दुष्प्रभावों के प्रति उपेक्षापूर्ण है। उपचार में साधन, साध्य एवम् सामग्री की पवित्रता संदिग्ध है। उपचार में आत्मा और मन ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने स्वास्थ्य का ख्याल स्वयम् के विकार पूर्ण रूप से उपेक्षित हैं। अर्थात उपचार की प्राथमिकताएँ रखना होगा। अपनी क्षमताओं को समझ उनका सदुपयोग कर ही गलत हैं। निदान अपूर्ण होता है तब सही उपचार, पूर्ण स्वास्थ्य डाक्टरों की पराधीनता को छोड़ना होगा। सर्वप्रथम रोग के की प्राप्ति की आशा, मिथ्या कल्पना नहीं तो क्या? स्थायी कारणों से बचना होगा। कोई रोग एक दिन में प्रकट नहीं हो जाता। रोग कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे बाजार से खरीदा जा सके, उपचार तो अपने आपको स्वावलंबी बनाने वाली, सभी काल उधार लिया जा सके अथवा चुराया जा सके? क्या हमारा श्वास में उपलब्ध सभी के लिए उपलब्ध सभी स्थानों पर उपलब्ध कोई दूसरा ले सकता है? खाना अन्य कोई पचा सकता है? प्रभावशाली स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा-पद्धतियों से ही प्यास दूसरों के पानी पीने से शान्त हो सकती है? हमारी निद्रा - पी पीने से शान्त हो सकती है। माना संभव हो सकेगा। क्योंकि वे हिंसा पर नहीं अहिंसा पर आधारित अन्य कोई ले सकता है? शरीर से निकलने वाले मल, पेशाब हैं। विषमता पर नहीं समता पर तथा साधना पर आधारित है, आदि अवांछित तत्त्वों का विसर्जन दसरा कर सकता है? हमारी जिनमें शरीर, मन एवं आत्मा तीनों के विकारों को दूर करने की रक्त, मांसपेशियाँ, कोशिकाएँ, हड्डियां जैसी प्रतिक्षण बनने वाली क्षमता है। परंतु उसके लिए रोगी की सजगता, सम्यक् पुरुषार्थ वस्तुएँ भी शरीर स्वयम् ही बनाता है। शरीर जब हृदय, फेफड़े, और आचरण आवश्यक है। నగరంగరం గరం గరంగరంగా Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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