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________________ -यतीन्द्रमूनिमारक गाना गवतिक सन्दर्भ में ... - जा सकते हैं। अतः हमें स्वस्थ रहने के लिए आत्मा में विकार अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा अधिकांश. बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। प्रचलित चिकित्सा-पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर रोगों से राहत पहुँचाने मात्र का होता है। विभिन्न चिकित्सारोग में मन की भूमिका पद्धतियाँ और उनमें कार्यरत चिकित्सक आज असाध्य एवं शक्ति एवं रोग की दूसरी परत मन से संबंधित होती है। संक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े-बड़े दावे और विज्ञापन मन का जितना विकसित स्वरूप मानव-जीवन में प्राप्त होता है, करते हैं, वे कितने भ्रामक तथा अस्थाई होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह उतना अन्य किसी प्राणी में नहीं मिलता। मन से ही मनन, छोड़ सम्यक् चिंतन आवश्यक है। जब निदान ही अधूरा हो, चिंतन, कृति, विकृति, संकल्प, इच्छाओं, एषणा, भावनाओं का अपूर्ण हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या नियंत्रण होता है। मन बड़ा चंचल है। उसकी स्वछन्द एवं हैं? अतः उपचार करते समय जो चिकित्सा-पद्धतियाँ शारीरिक अनियंत्रित गतिविधियाँ अधिकांश रोगों की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण व्याधियों को मिटाने के साथ-साथ मन एवं आत्मा के विकारों भूमिका निभाती हैं। मन को संयमित, नियंत्रित तथा अनुशासित को दूर करती हैं, वे ही उपचार स्थाई एवं प्रभावशाली होते हैं, रखने से हम अनेक रोगों से सहज ही बच जाते हैं। आज हम इसमें हमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए। सत्य सनातन होता जितना ख्याल शारीरिक स्वच्छता-शुद्धता का रखते हैं, बाह्य है। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते पर्यावरण एवं प्रदूषण की चिंता करते हैं, क्या इतनी चिंता मन में हैं। दो और दो चार ही होते हैं। अतः जिन्हें स्थायी रूप से उठने वाले क्रोध, हिंसा, क्रूरता, तिरस्कार, वासना आदि विचारों रोगमुक्त बनना हो, रोग के सभी कारणों से बचना एवं उपचार के प्रदूषण की करते हैं? इन आवेगों से ही रोग बढ़ते हैं। मन का से दूर करना चाहिए। नियंत्रण हमारी स्वयं की सजगता पर निर्भर करता है। इसी कारण एक जैसे रोग की स्थिति में एक व्यक्ति बहुत परेशान ' एवं बेचैन रहता है। हाय-हाय करता है, जबकि दूसरा तनिक भी आज चिकित्सा के बारे में असमंजस की स्थिति है। कोई विचलित नहीं होता। स्वस्थ चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ध्यान एवं रोग का कारण रासायनिक अंसतुलन एवं वायरस अथवा विषैले कार्योत्सर्ग द्वारा मन को अशुभ से शुभ, अनुपयोगी से उपयोगी कीटाणुओं को मानते हैं तो कुछ वात, कफ, पित्त के असंतुलन प्रवृत्तियों में लगाया जा सकता है। जो स्वस्थ जीवन के लिए को ही रोग का आधार बतलाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक वाणियाँ अति आवश्यक है। करते हैं। जितनी चिकित्सा-पद्धतियाँ उतने ही सिद्धान्त। किसी पद्धति को अवैज्ञानिक गलत नहीं कहा जा सकता। परन्तु शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों में चिकित्सक प्रायः एक पक्षीय चिंतन के पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं। उनके चिंतन में समग्रता आत्मा और मन के पश्चात् रोग एवं शक्ति की तीसरी परत एवं व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होता है। होती है शरीर की आंतरिक क्रियाओं पर और अंत में उनके जनसाधारण से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा-पद्धतियों के बारे में विस्तृत जानकारी शरीर स्वास्थ्य एवं जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं रखें। अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी आते। जितने ध्यान में आते हैं; उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर होती है और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। जब तक सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे रोग के स्पष्ट लक्षण प्रकट न हों, रोग सहनशक्ति से बाहर नहीं चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों आ जाता, विकारों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। रोगी की पकड़ में नहीं आते। जितने उनकी समझ से लक्षण स्पष्ट का एकमात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उत्पन्न लक्षणों को हटा रूप से प्रकट होते हैं, उन सभी का वे उपचार नहीं कर पाते। कर अथवा दबाकर शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना होता है। जैसे ही परिणामस्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं, उनके उसे आराम मिलता है, वह अपने आपको स्वस्थ समझने लग अपूर्ण-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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