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________________ - यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक संदर्भ में जैनधर्म - अरिष्टनेमि की होने वाली पत्नी थी, वहीं रथनेमि अरिष्टनेमि के वर्गीकरण भाई थे। अरिष्टनेमि के वैराग्य लेने के बाद राजीमति भी दीक्षित (Lewin 1935 Ruch 1967 पर आधारित) होकर रैवतक पर्वत पर आरूढ़ अरिष्टनेमि की वंदना करने जा द्वन्द्व की प्रवणता (Gradients of Conflict)--अधिकांश रही थी। उसी पर्वत की एक गुफा में रथनेमि भी त्यागमय द्वन्द्वों की उत्पत्ति ऐसे लक्ष्यों से होती है, जिनमें आकर्षण और जीवन को अपनाकर तपाराधना में लीन था। वर्षा के कारण विकर्षण दोनों पाए जाते हैं। जैसे किसी छात्र को मक्खन खाने राजीमति को उसी गुफा में शरण लेनी पड़ी। परंतु इस बीच वह का शौक है, परंतु मोटापे का भी भय है, किसी छात्र को पर्वतारोहण वर्षा से पूरी तरह भीग गई थी। उसने अपने गीले वस्त्रों को में रुचि है, परंतु दुर्घटना से डरता है या कोई बच्चा बत्तख को सुखाने के लिए उसे जमीन पर फैला दिया। इसी बीच साधनारत पकड़ने के लिए अग्रसर होना चाहता है, परंतु उसकी आवाज से रथनेमि की दृष्टि राजीमति के वस्त्रहीन देह पर पड़ी। वह वासना डरता भी है। इन सभी परिस्थितियों में आकर्षणात्मक विकर्षण के आवेग से भर गया और राजीमति की शरीर को पाने के लिए दोनों है। इन परिस्थितियाँ को उभय कर्षणात्मक (Ambivalent) उससे अनुनय विनय करने लगा। राजीमति ने उसे ऐसा करने से परिस्थितियां कहते हैं। लक्ष्य-वस्तुओं से व्यक्ति की समझ से रोका और उपदेश देकर उसे उसके लक्ष्य का ज्ञान कराया। आकर्षण एवं विकर्षण की मात्रा जितनी होगी, उसी के अनुरूप राजीमति के उपदेश से वह वासनात्मक आवेग से मुक्त हुआ व्यक्ति के व्यवहार में लक्ष्यों के प्रति उपागम या परिहार की और अपने त्यागमय जीवन पर दृढ हो गया। यहाँ रथनेमि द्वारा तीव्रता भी होगी। उसे द्वन्द्व की प्रवणता या तीव्रता कहते हैं राजीमति के शरीर को पाने की चाहत इदम् की आनंदात्मक (Brown, १९४८) हिलगार्ड (१९७५) इत्यादि ने इस प्रसंग में अनुभूति को प्रकट करती है, दूसरी तरफ राजीमति के उपदेश निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-- द्वारा विवेक का जागरण पराहम् की भावना पर प्रकाश डालता है। रथनेमि के मन में उस समय जो द्वन्द्व उत्पन्न हआ उसे इदम (i) यदि प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य (+ve) के समीप है तो उसे तथा पराहम के संघर्ष का परिणाम ही कहा जा सकता है जहां प्राप्त करने का प्रयास तीव्र हो जाएगा। अहम् इन विरोधी भावों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। (ii) निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) प्रयोज्य के जितना ही समीप होगा, वह उससे उतना ही दूर होना चाहेगा। (A) (iii) सामान्यतया विधेयात्मक उद्दीपक (+ve) की तुलना में निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) से दूर होने की प्रवृत्ति अधिक प्रबल होती है। जैनमत में द्वन्द्वप्रवणता-द्वन्द्वप्रवणता की अवधारणा जैन मत में निम्न रूपों में देखी जा सकती है-- लक्ष्य (i) प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य के समीप रहने पर उसे प्राप्त करने का अधिक प्रयत्न करता है। यही प्रवणता चुल्लशतक में पाई जाती है। जब देव उसकी धन-सम्पत्ति को अपहरण करने की धमकी देता है तब वह (चुल्लशतक) उस देव को पकड़कर इस कार्य को होने ही नहीं देना चाहता है। यहाँ चुल्लशतक के समक्ष देव के रूप में लक्ष्य समीप था। उसने सोचा कि अगर मैं इसे पकड़ लेता हं तो मेरे धन का अपहरण नहीं हो पाएगा क्योंकि इसे लेने वाला देव मेरी गिरफ्त में आ जाएगा। aniramidrorarianoonironironionbondonoonistant२१Hdniroinororaniranoranidroritiiranikariramirrowrir Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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