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________________ २१ वीं सदी की प्रमुख समस्याएँ और जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में उनके समाधान डॉ. सागरमल जैन.... आज सम्पूर्ण विश्व अशान्त एवं तनावपूर्ण स्थिति में हैं। हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छद्मों का बाहुल्य है। उसके भीतर बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक उसका 'पशुत्व' कुलाँचे भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालायें मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही दूर नहीं कर पाई हैं। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्त्राधिक आज के मानव-जीवन की त्रासदी है, पीड़ा है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के होते हुए भी आज का आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक दमित मूलप्रवृत्तियों और उनसे जनित दोषों के कारण मानवता एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। भौतिक सुख-सुविधाओं आज भी अभिशप्त है, दोहरे संघर्षों के कारण आज उसका का यह अम्बार भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। __ मानस तनावयुक्त है - विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों से गुजर रही आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व की दूरी को कम कर है, १. आन्तरिक और २. बाह्य। आन्तरिक संघर्ष के कारण दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी आज ज्यादा सामाजिक जीवन अशान्त और अस्त-व्यस्त है। आज का मनुष्य हो गई है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन परमाणु-तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है, किन्तु में अभय का विकास नहीं कर पाई है। आज भी मनुष्य उतना ही एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति आशंकित, आतंकित और आक्रामक है, जितना आदिम युग में उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज विध्वंसकारी शस्त्रों के । . ढह चुके हैं और नए मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक वृत्ति अधिक विनाशकारी इक्कीसवीं शती के प्रवेश द्वार पर खड़े आज हम मूल्य-रिक्तता बन गई है और आज शस्त्र-निर्माण की इस अंधी दौड़ में सम्पूर्ण की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नए मूल्यों की प्रसव-पीड़ा मानव-जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार की जा रही है। से गजर रही है। आज हम उस कगार पर खडे हैं जहाँ मानवआर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य की इस जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। देखें, इस दुःखद स्थिति में अर्थलोलपता ने मानव-जाति को शोषक और शोषित ऐसे दो जैनधर्म के सिद्धान्त हमारा क्या मार्गदर्शन कर सकते हैं? वों में बाँट दिया है जो एक-दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की वर्तमान में मानव जीवन की समस्याएँ निम्नांकित हैं - तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल है, तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और १. मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, २. सामाजिक एवं जातीय संघर्ष, विक्षुब्ध। आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीकी और आर्थिक ३. पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या, ४. विध्वंसक शस्त्रों का समृद्धि की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू.एस.ए. मानसिक अम्बार,५. धार्मिक रूढ़िवाद,६.वैचारिक संघर्ष एवं ७. आर्थिक तनावों एवं आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान संघर्ष। है। इस सम्बन्धी उसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। आज मनुष्य माज मनुष्य अब हम इन सभी समस्याओं पर जैनधर्म की शिक्षाओं का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित सभ्यता के की दृष्टि से विचार कर यह देखेंगे कि वह इन समस्याओं के समाधान के क्या उपाय प्रस्तुत करता है। स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है। आज जीवन के domidiosambromidniromita-ordididibrariorial १ hariwordminiwordwanivoritaminordidasanitarianitarai Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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